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________________ ६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०४ में बनी थी और उसके कर्ता धर्मघोष थे। उसमें दिगम्बरमत-विचार नाम का एक अध्याय है, जिसमें स्त्रीमुक्ति, प्रतिमाशृंगार, मुनियों का पाणिपात्रभोजन और वस्त्रग्रहण आदि विषयों को लेकर दिगम्बरसम्प्रदाय की आलोचना की गई है।" (जै.सा.इ.प्रेमी / द्वि.सं. / पृ. ४८९-९०)। ___ उक्त दिगम्बरमत-विचार में दिगम्बर साधुओं को लक्ष्य करके जो बातें कही गयी हैं, उनसे इस बात का पता लगता है कि विक्रम की तेरहवीं सदी में दिगम्बर मुनियों का चरित्र कैसा था। उसकी कुछ बातें पं० नाथूराम जी प्रेमी ने जैनहितैषी में अर्थसहित प्रकाशित की थीं। उन्हें यहाँ उद्धृत किया जा रहा है "१. यदि च दिग्वासस्तत्कथं सादरिकापरियोगपट्टकान् गृह्णन्ति यदि तु पञ्चमकालत्वात् लज्जापरिषहासहिष्णुतया च आवरणमपि गृह्णन्ति ततः कथं न परिदधति। नहि प्रावरणमुत्कलं परिधानं च निषिद्धमित्यस्ति क्वापि। अन्यच्च प्रावरणमपि प्रासुकेनैव वस्त्रेण यथालब्धेन किमिति न क्रियते, किमिति रजकादिहस्तेन हृदसर:प्रभृतिषु सशैवालद्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रिय-जीवाकुलेन क्षालनमनेकसत्त्व-संघातविघातकेनाशोधितेन्धनप्रज्वालितेन वह्निना रञ्जनादिकं विधाप्यते। ___अनुवाद-"यदि तुम दिगम्बर हो तो चटाई तथा योगपट्ट (लज्जानिवारक आवरण) क्यों रखते हो? यदि कहो कि पंचमकाल होने के कारण तथा लज्जापरीषह का सहन नहीं हो सकने के कारण रखते हैं, तो फिर उसे निरंतर ही क्यों नहीं पहिनते हो? क्योंकि ऐसा तो कहीं कहा ही नहीं है कि आवरण वा योगपट्ट रखना, परंतु पहिरना नहीं। और वह आवरण जैसा मिल जाय वैसा प्रासुक वस्त्र लेकर क्यों नहीं बनाते हो? धोबी आदि के हाथ से जीवमय नदियों, तालाबों में क्यों धुलाते हो, तथा बिना शोधे ईंधन से जलाई हुई आग के द्वारा उसको रँगाते क्यों हो? __ "२. स्वभावसिद्धं सुलभं अल्पमूल्यं च श्वेतकल्पं विना शीतकाले अनन्यसममहासावद्यां सर्वत आधारसत्त्वज्वलनाधारामङ्गारशकटीं भजन्ते। शुषिरं सबीजं च संस्तरणाद्यर्थं पलालमाश्रयन्ति। तैलाभ्यङ्गं च निषिद्धं कारयन्ति। जिनभवनगूढमण्डपादिष्वप्याशातनामगणयन्तः शीतभयाच्छेरते। ग्लानत्वे च गृहस्थसम्बन्धीन्यप्रत्युपेक्षतानि प्रमाणाधिकानि यतिजनायोग्यानि पटीद्विपटीबोरकरल्लिकादीनि प्रावृण्वन्ति। अनुवाद-"बिना कपड़े के (तुममें से बहुत से साधु) शोतकाल में महान् पाप की करनेवाली अग्नि की अँगीठी का सहारा लेते हैं, बीजयुक्त और बिना बीज के पयाल के बिछौने का आसरा लेते हैं, तैल की मालिश, जो साधुओं के लिये वर्जित है, कराते हैं, अविनय होने का कुछ भी विचार नहीं रखके जिनमंदिर के गूढमण्डप (गर्भालय) में सोते हैं। इसके सिवाय गृहस्थों के बर्ते हुए , साधुओं के Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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