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________________ अ०८ / प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ६५ इन प्रतिमालेखों से सिद्ध होता है कि भट्टारकसम्प्रदाय का उदय ईसा की १२वीं शती में हुआ था । अर्थात् इसी सदी में पासत्थादि दिगम्बरजैन साधु नग्नत्व त्यागकर जैनेतर साधु जैसे वस्त्र धारण करने लगे थे और इसी सवस्त्र वेश में जैनों के धर्मगुरु बन कर उन्होंने अपने को भट्टारक नाम से प्रसिद्ध किया था । पं० नाथूराम जी प्रेमी का भी यही मत है कि जब से चैत्यवासी या मन्दिरवासी दिगम्बरमुनि वस्त्र (अजिनोक्त - सवस्त्रसाधुलिंग) धारण करने लगे, तभी से भट्टारकप्रथा प्रारंभ हुई। और उक्त लिंग धारण करने की प्रथा भट्टारक श्रुतसागर सूरि के कथनानुसार विक्रम सं० १२६४ में चैत्यवासी मुनि वसन्तकीर्ति ने चलायी थी । इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए प्रेमी जी लिखते हैं " दिगम्बर चैत्यवासियों के अन्तिम विकसित रूप भट्टारकों में यह परम्परा अब तक रही है कि वे और समय तो वस्त्र पहिने रहते हैं, परन्तु आहार के समय उतारकर अलग रख देते हैं। यह इस बात का सबूत है कि पहले वे बिल्कुल नग्न रहते थे और निरन्तर वस्त्रधारण करने की प्रवृत्ति उनमें पीछे शुरू हुई । " विक्रम की सोलहवीं सदी में श्रुतसागर ने लिखा है कि कलिकाल में म्लेच्छादि ( मुसलमान वगैरह ) यतियों को नग्न देखकर उपद्रव करते हैं, इस कारण मण्डप दुर्ग (मांडू) में श्री वसन्तकीर्ति स्वामी ने उपदेश दिया कि मुनियों को चर्या आदि के समय चटाई, टाट आदि से शरीर को ढँक लेना चाहिए और फिर चर्या के बाद चटाई आदि को छोड़ देना चाहिए। यह अपवादवेष है । "कोऽपवादवेषः ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति । तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसारादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनामित्यपवादवेषः " ( श्रुतसागरटीका / दंसणपाहुड / गा.२४)। "मूलसंघ की गुर्वावली में चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारकों के जो नाम दिये हैं, उनमें वसन्तकीर्ति का नाम आता है, जो वि० संवत् १२६४ के लगभग हुए हैं। उस समय उस तरफ मुसलमानों का आतंक भी बढ़ रहा था। शायद इन्हीं को श्रुतसागर ने इस अपवादवेष का प्रवर्तक बतलाया है । अर्थात् विक्रम की तेरहवीं सदी के अन्त में दिगम्बर साधु बाहर निकलते समय लज्जानिवारण के लिए चटाई आदि का उपयोग करने लगे थे। " वि० सं० १२९४ में ( श्वेताम्बरमुनि) महेन्द्रसूरि ने शतपदी नामक संस्कृत ग्रन्थ की रचना की है, जो प्राकृत शतपदी का अनुवाद है। प्राकृत 'शतपदी' सं० १२६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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