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[ बानवे ]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
आम्नाय (संघ), सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण की दो पट्टावलियाँ प्रदान की थीं। श्री बेण्डल ने वे प्रो० (डॉ०) ए० एफ० रूडाल्फ हार्नले ( A. F. Rudolf Hoernle) को सौंप दीं। प्रो० हार्नले ने उन्हें 'ए' और 'बी' नाम दिया तथा उनके अनुसार पट्टधरों की एक तालिका तैयार की और उसे The Indian Antiquary: A Journal of Oriental Researeh, Vol.XX, October 1891 में प्रकाशित किया। इस तालिका में आचार्य कुन्दकुन्द को पाँचवें क्रम पर दर्शाया गया है, यथा - १. भद्रबाहु द्वितीय, २ . गुप्तिगुप्त, ३. माघनन्दी प्रथम, ४. जिनचन्द्र प्रथम, ५. कुन्दकुन्द । इसमें बतलाया गया है कि कुन्दकुन्द का जन्म ईसा से ५२ वर्ष पूर्व हुआ था और ईसा से ८ वर्ष पहले ४४ वर्ष की आयु में वे आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे तथा ५१ वर्ष, १० मास एवं १० दिन तक आचार्य - पद पर आसीन रहे। उसके ५ दिन बाद स्वर्ग सिधार गये । इस प्रकार उनका जीवनकाल ९५ वर्ष, १० मास और १५ दिन था । ( अध्याय ८ / प्र.२ / शी. १, २, ३, ४ ) ।
इस विवरण के अनुसार कुन्दकुन्द का स्थितिकाल ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक था, जिसे प्रस्तुत ग्रन्थ में ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी शब्द से अभिहित किया गया है। इस काल के प्रामाणिक होने की पुष्टि साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाणों से होती है। उदाहरणार्थ, ईसा की प्रथम शती के उत्तरार्ध में रचित भगवती - आराधना और मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से गाथाएँ ग्रहण की गयी हैं, प्रथम - द्वितीय शती ई० में रचित तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्र कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के आधार पर रचे गये हैं । द्वितीय शती ई० की तिलोयपण्णत्ती में कुन्दकुन्द - साहित्य की बहुत सी गाथाएँ समाविष्ट हैं । मर्करा के खजाने से प्राप्त शकसंवत् ३८८ ( ई० सन् ४६६ ) के ताम्रपत्रलेख में कुन्दकुन्दान्वय और उसके छह गुरु-शिष्यों के नाम का उल्लेख है, जिससे कुन्दकुन्दान्वय बहुत पूर्ववर्ती सिद्ध होता है । (अध्याय १०/प्र.१ / शी. ११) ।
३. श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी में प्रकाशित पूर्वोक्त नन्दिसंघ की पट्टावली को भट्टारक- सम्प्रदाय की पट्टावली मानकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आचार्य कुन्दकुन्द पहले भट्टारक - सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे, पश्चात् उससे विद्रोहकर अलग हो गये और विलुप्तप्राय दिगम्बरपरम्परा का पुनरुद्धार - पुनः संस्थापन किया । (अध्याय ८ / प्र.२ / शी. १) । आचार्य जी ने माना है कि उक्त पट्टावली इतिहास के विद्वानों द्वारा कालक्रमानुसार तैयार की गयी है एवं भट्टारक- परम्परा के उद्भव, प्रसार तथा उत्कर्षकाल के विषय में युक्तिसंगत एवं सर्वजनसमाधानकारी निर्णय पर पहुँचानेवाली है । (अध्याय ८ / प्र. २ / शी. १) | किन्तु, विडम्बना यह है कि अपनी ही इस मान्यता के विरुद्ध आचार्य हस्तीमल जी पट्टावली में दर्शाये गये आचार्य कुन्दकुन्द के पट्टारोहणकाल को उचित नहीं मानते। उनके अनुसार
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