SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थसार [इक्यानवे] का उल्लेख प्रथम शती ई० की भगवती-आराधना, मूलाचार आदि से लेकर ८वीं शती ई० के वीरसेन स्वामी की धवला और जयधवला टीकाओं तक में किया गया है। (देखिये, अध्याय १०/प्र.१/शी.२ से १०)। अतः यह मत अप्रामाणिक सिद्ध हो जाता है कि वीरसेन, जिनसेन आदि आचार्यों ने कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख इसलिए नहीं किया कि वे कुन्दकुन्द के मत से असहमत थे। ४. वीरसेन स्वामी आदि दिगम्बर-ग्रन्थकारों के द्वारा कुन्दकुन्द का नामोल्लेख न किये जाने का एक ही कारण है, वह है उनके नाम से अनभिज्ञ होना। जैसे तत्त्वार्थसूत्र में उसके कर्ता गृध्रपिच्छ के नाम का उल्लेख न होने से और यह प्रसिद्ध न होने से कि उसके कर्ता गृध्रपिच्छ हैं, टीकाकार पूज्यपाद स्वामी (५वीं शती ई०) और भट्ट अकलंकदेव (७वीं शती ई०) भी उनसे अपरिचित रहे, जिसके फलस्वरूप वे अपनी टीकाओं में तत्त्वार्थसूत्रकार के रूप में उनका नाम निर्दिष्ट नहीं कर सके, वैसे ही समयसारादि ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न होने से तथा यह प्रसिद्ध न होने से कि उन ग्रन्थों के रचयिता कुन्दकुन्द हैं, दसवीं शताब्दी ई० के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र भी इस तथ्य से अनभिज्ञ रहे कि समयसारादि महान् ग्रन्थों के कर्ता वही आचार्य कुन्दकुन्द हैं, जिनसे कुन्दकुन्दान्वय नाम का विशाल अन्वय प्रसूत हुआ। जिस प्रकार बहुत समय बाद ८वीं शती ई० में धवलाटीका के कर्ता वीरसेन स्वामी ने किसी प्राचीन लिखित स्रोत से यह ज्ञात होने पर कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आचार्य गृध्रपिच्छ हैं, धवलाटीका में इसका उल्लेख किया है, उसी प्रकार १२वीं शती ई० में किसी प्राचीन ग्रन्थादि से यह जानकारी होने पर कि समयसार आदि ग्रन्थों के निर्माता वही महान् कुन्दकुन्द हैं, जिनके नाम से कुन्दकुन्दान्वय प्रवाहित हुआ है, आचार्य जयसेन ने अपनी टीकाओं में उन ग्रन्थों के निर्माता के रूप में कुन्दकुन्द के नाम की चर्चा की है। (देखिये, अध्याय ९/शी. २.४)। अध्याय १०-आचार्य कुन्दकुन्द का समय १. आचार्य कुन्दकुन्द भगवान् महावीर के अनुयायी निर्ग्रन्थसंघ के आचार्य थे। यह निर्ग्रन्थसंघ ही वर्तमान में 'मूलसंघ' और 'दिगम्बरजैन-संघ' के नाम से प्रसिद्ध है। मूलसंघ में ही नन्दिसंघ का जन्म हुआ था। अतः पट्टावलियों और शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्द को मूलसंघ का और मूलसंघ में उत्पन्न नन्दिसंघ का आचार्य कहा गया है। (अध्याय ८/ प्र.३ / शी. १ एवं ३)। २. ई० सन् १८८५ में राजपूताना की यात्रा के समय श्री सेसिल बेण्डल (Mr. Cecil Bendall) को जयपुर के पण्डित श्री चिमनलाल जी ने मूलसंघ के नन्दी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy