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[नब्बे]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ये तीन हेतु इस बात के प्रमाण हैं कि वीरसेन, जिनसेन आदि आचार्य भट्टारकपीठ पर आसीन अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी भट्टारक नहीं थे। उनके साथ जुड़ी 'भट्टारक' उपाधि उन्हें उनकी विद्वता के अभिनन्दनार्थ प्रदान की गयी थी। (आदिपुराण / १ । ५५-५६)। अतः आचार्य हस्तीमल जी का यह कथन अप्रामाणिक है कि धवलाकार वीरसेन, आदिपुराणकार जिनसेन आदि भट्टारसम्प्रदाय के भट्टारक थे और आचार्य कुन्दकुन्द भट्टारकसम्प्रदाय से अलग हो गये थे, इसलिए उन्होंने अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख नहीं किया।
२. प्रो० एम० ए० ढाकी ने ग्रन्थकारों द्वारा कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न किये जाने का एक अन्य ही कारण बतलाया है। उनका कथन है कि दसवीं शताब्दी ई० (आचार्य अमृतचन्द्र के समय) के पूर्व तक न तो किसी दिगम्बर आचार्य ने अपने ग्रन्थ में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख किया है, न ही उनके ग्रन्थों पर टीका लिखी गयी। इससे सिद्ध होता है कि वे आचार्य अमृतचन्द्र के सौ-दो-सौ वर्ष पूर्व ही हुए थे। (देखिये, अध्याय ९/शी. २.२)।
___ अर्थात् प्रो० ढाकी के अनुसार कुन्दकुन्द वीरसेन स्वामी आदि से अर्वाचीन थे, इसलिए उन्होंने कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख नहीं किया। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे, इसका सप्रमाण प्रतिपादन दशम अध्याय में किया गया है। उन प्रमाणों पर दृष्टि डालने से सिद्ध हो जाता है कि कुन्दकुन्द के नामअनुल्लेख का ढाकी जी द्वारा बतलाया गया कारण सर्वथा मिथ्या है।
___३. पं० नाथूराम जी प्रेमी का मत है कि कुन्दकुन्द एक खास आम्नाय या सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। उन्होंने जैनधर्म को वेदान्त के साँचे में ढाला था। जान पड़ता है कि जिनसेन आदि के समय तक उनका मत सर्वमान्य नहीं हुआ था, इसीलिए उनके प्रति उनमें कोई आदरभाव नहीं था। यही कारण है कि उन्होंने कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख नहीं किया। (देखिये, अध्याय ९/शी.२.३)।
इस पर आपत्ति करते हुए प्रो० ढाकी प्रश्न करते हैं कि यदि कुन्दकुन्द की नई विचारधारा से अन्य आचार्य सहमत नहीं थे, तो उन्होंने उसका प्रतिवाद क्यों नहीं किया और असहमत होते हुए भी उनके ग्रन्थों का अनुसरण क्यों किया जाता रहा? (देखिये, अध्याय ९/पा. टि.१२)।
प्रो० ढाकी का यह प्रश्न उचित है। प्रश्न में प्रकट किया गया तथ्य प्रेमी जी की इस धारणा को मिथ्या सिद्ध कर देता है कि जिनसेन आदि के समय तक आचार्य कुन्दकुन्द का मत सर्वमान्य नहीं हुआ था। कुन्दकुन्द सर्वमान्य आचार्य थे और उनके सिद्धान्तों का अनुसरण, उनकी गाथाओं का प्रमाणरूप में उद्धरण तथा उनके ग्रन्थों
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