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ग्रन्थसार
[नवासी] कारण था ख्याति की आकांक्षा का अभाव। अतः आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा अपने गुरुनाम का उल्लेख न किये जाने का भी यही कारण है।
कुन्दकुन्द ने जो बोधपाहुड (गा. ६१-६२) में श्रुतकेवली भद्रबाहु को अपना गमकगुरु (परम्परागुरु) कहकर उनका जयकार किया है, उसका विशेष प्रयोजन है। वह है अपने ग्रन्थों में किये गये प्ररूपण की प्रामाणिकता ज्ञापित करना अर्थात् यह प्रकट करना कि वह स्वकल्पित नहीं है, अपितु श्रुतकेवली द्वारा वर्णित सर्वज्ञ के उपदेश पर आश्रित है, जैसा कि उनके निम्नलिखित वचन से स्पष्ट होता है-"वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं।" (समयसार / गा.१)।
इसी प्रकार अनेक दिगम्बर-ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का स्मरण नहीं किया है। विभिन्न विद्वानों ने इसके भी अलग-अलग कारण बतलाये हैं, जो असंगत हैं।
१. आचार्य हस्तीमल जी ने कहा है कि धवलाकार वीरसेन स्वामी और उनके शिष्य-प्रशिष्य जिनसेन, गुणभद्र, हरिवंशपुराणकार जिनसेन आदि भट्टारकसम्प्रदाय के थे तथा कुन्दकुन्द भट्टारक-सम्प्रदाय में दीक्षित होकर उससे अलग हो गये थे, इसलिए वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र आदि ने अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख नहीं किया। (देखिये, अध्याय ८/प्र.२ / शीर्षक १/ उपान्त्य अनुच्छेद)।
आचार्य हस्तीमल जी का यह कथन निम्नलिखित कारणों से समीचीन नहीं है
क-वीरसेन स्वामी सेनसंघी थे और सेनसंघ की पट्टावली में उन्हें किसी भी स्थान के भट्टारकपीठ पर आसीन नहीं बतलाया गया है।
ख-वीरसेन स्वामी ८वीं शताब्दी ई० में हुए थे और १२ वीं शताब्दी ई० के पूर्व भट्टारकसम्पद्राय का उदय नहीं हुआ था। अतः उनका भट्टारकसम्प्रदाय का भट्टारक होना असंभव है।
__ग-आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन ने 'पावा॑म्युदय' (४/७१) में वीरसेन स्वामी, उनके शिष्य विनयसेन तथा स्वयं को मुनि, गरीयान् मुनि और मुनीश्वर विशेषणों से विशेषित किया है। तथा प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति के कर्ता जयसेन ने, जो सेनगण (संघ) के ही थे, अपने गुरु एक अन्य वीरसेन को जातरूपधर और निर्ग्रन्थपदवीधारी बतलाया है। (जयसेनप्रशस्ति/प्र.सा./पृ.३४५)। दर्शनसार के रचयिता देवसेन ने जिनसेन के शिष्य गुणभद्र के लिए महातपस्वी, पक्षोपवासी, भावलिंगी मुनि इन शब्दों का प्रयोग किया है। (गा. ३०-३१)।
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