________________
[अठासी]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ का प्रयोग है। 'पट्ट' शब्द का अर्थ है प्रमुख या प्रधान। अतः वह 'आचार्य' का पर्यायवाची है। उक्त पट्टावलियों के अंगरेजी अनुवाद में प्रो० ए० एफ० रूडाल्फ हार्नले ने 'पट्ट' एवं 'पट्टस्थ' शब्दों का अनुवाद Pontiff किया है, जिसका अर्थ 'धर्मगुरु' (आचार्य) होता है, पट्टाधीश नहीं। किन्तु 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' (भाग ४/पृ.४४१-४४३) के लेखक डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री ने 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' (Vol. XX) में प्रकाशित पट्टावली के स्वकृत हिन्दी-अनुवाद में Pontiff का अनुवाद 'पट्टाधीश' कर दिया है। इसे आचार्य हस्तीमल जी ने पट्टावली का मूलपाठ मान लिया है, जो उनका भ्रम है। यदि उन्होंने मूलपाठ देखा होता, तो यह भ्रम न होता।
पट्टावली के मूलपाठ में किसी आचार्य को 'भट्टारक' शब्द से भी अभिहित नहीं किया गया है। आचार्य हस्तीमल जी को इस शब्द के प्रयोग का भी भ्रम हुआ है। इन भ्रमों के आधार पर उन्होंने यह मान लिया कि उक्त पट्टावली में आचार्यों के लिए सात बार 'पट्टाधीश' विशेषण और दो बार 'भट्टारक' विशेषण का प्रयोग हुआ है, अतः वह भट्टारकपरम्परा की पट्टावली है। यतः आचार्य श्री हस्तीमल जी की यह मान्यता भ्रमजन्य है, अतः सिद्ध है कि उक्त पट्टावली केवल भट्टारकपरम्परा की नहीं, अपितु मुनि-परम्परा और भट्टारकपरम्परा दोनों की है। फलस्वरूप आचार्य माघनन्दी, जिनचन्द्र और कुन्दकुन्द भट्टारक परम्परा के पट्टाधीश नहीं थे, अपितु मुनिपरम्परा के आचार्य थे।
चूँकि आचार्य कुन्दकुन्द के शुरू में भट्टारकपरम्परा में दीक्षित होने की मान्यता अप्रामाणिक है, अतः यह मान्यता भी अप्रामाणिक है कि उन्हें अपने भट्टारकगुरु जिनचन्द्र में उनके भट्टारकीय आचरण के कारण अश्रद्धा हो गयी थी, इसलिए उन्होंने अपने ग्रन्थों में उनके नाम का उल्लेख नहीं किया। नामोल्लेख न करने के कारण पर नवम अध्याय में प्रकाश डाला गया है। अध्याय ९-गुरुनाम तथा कुन्दकुन्दनाम-अनुल्लेख का कारण
हम देखते हैं कि षट्खण्डागम के कर्ता पुष्पदन्त और भूतबलि, कसायपाहुड के कर्ता गुणधर, तत्त्वार्थसूत्रकार गृध्रपृच्छ, आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपादस्वामी आदि अन्य दिगम्बराचार्यों ने भी अपने ग्रन्थों में स्वगुरुओं के नाम का स्मरण नहीं किया है। यहाँ तक कि अपने भी नाम की चर्चा नहीं की। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में, पतञ्जलि ने योगदर्शन में और वाल्मीकि ने रामायण में अपने गुरु के नाम का निर्देश नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि प्राचीनकाल में प्रायः निःस्पृह ग्रन्थकारों के द्वारा अपने ग्रन्थों में स्वयं के तथा स्वगुरु के नाम का उल्लेख करने की परम्परा नहीं थी। इसका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org