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ग्रन्थसार
[ सतासी ]
है । फलस्वरूप ये दोनों चरित्र परस्पर विपरीत हैं। इससे सिद्ध हैं कि आचार्य श्री हस्तीमल जी ने वीरनिर्वाण के ६०९ वर्ष बाद तथा वीरनिर्वाण की नौवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में कतिपय दिगम्बरमुनियों में दिखायी देनेवाली चैत्यवासादि जिन प्रवृत्तियों को भट्टारकीय प्रवृत्तियाँ कहा है, वे भट्टारकीय प्रवृत्तियाँ नहीं थीं, अपितु पासत्थादिमुनिप्रवृत्तियाँ थीं।
भट्टारकीय प्रवृत्तियों का विकास ईसा की १२वीं शती में हुआ था, जब कुछ पासत्थादि-मुनियों ने मुनिलिंग त्यागकर पिच्छी - कमण्डलु के साथ एक ऐसा सवस्त्रलिंग धारण कर लिया था, जो मुनि, एलक, क्षुल्लक एवं सामान्य श्रावकों के लिंग से भिन्न था और जिससे वे दिगम्बरपरम्परा में एक नये प्रकार के जैनसाधु-सदृश दिखते थे तथा जिसकी सहायता से वे श्रावकों के नये प्रकार के धर्मगुरु, धर्माधिकारी अथवा धर्मशासक बन गये थे । (देखिये, अध्याय ८ / प्र.४ / शी. ३) ।
यतः भट्टारकीय प्रवृत्तियों का विकास सर्वप्रथम ईसा की १२ वीं शताब्दी में हुआ था और प्रस्तुत ग्रन्थ के दशम अध्याय में सिद्ध किया गया है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी एवं ईसोत्तर प्रथम शताब्दी) हुए थे, अतः सिद्ध है कि आचार्य माघनन्दी का भट्टारकसम्प्रदाय का संस्थापक होना तथा कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्र एवं कुन्दकुन्द का भट्टारकसम्प्रदाय में दीक्षित होना उसी प्रकार असंभव है, जिस प्रकार बन्ध्या स्त्री के पुत्र उत्पन्न होना ।
३. नन्दी आदि संघ मूलतः मुनियों के संघ थे। आगे चलकर इन संघों के जो मुनि भट्टारक बने, वे भी अपना सम्बन्ध इसी संघ से जोड़ते रहे। इसलिए 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' (Vol. XX) में प्रकाशित नन्दिसंघ की पट्टावलि में मुनियों और भट्टारकों, दोनों के नाम वर्णित हैं। प्रथम शुभचन्द्रकृत नन्दिसंघ की गुर्वावलि (१४वीं शती ई०) में भद्रबाहु - द्वितीय, गुप्तिगुप्त (अर्हद्बलि), माघनन्दी, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमास्वाति आदि के लिए महामुनि, मुनिचक्रवर्ती, सत्संयमी, जातरूपधर आदि विशेषणों के प्रयोग से स्पष्ट कर दिया गया है कि ये आचार्य २८ मूलगुणों का निरतिचार पालन करनेवाले मुनि थे, अजिनोक्त - सवस्त्र - साधुलिंगी भट्टारक नहीं । अतः आचार्य हस्तीमल जी का 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' (Vol. XX) में प्रकाशित नन्दिसंघ की सम्पूर्ण पट्टावली को भट्टारक पट्टावली मानकर माघनन्दी, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द आदि को भट्टारकं मान लेना अप्रामाणिक है।
४. ‘दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' (Vol. XX एवं Vol. XXI) में प्रकाशित नन्दिसंघ की पट्टावलियाँ जिन मूल हस्तलिखित प्रतियों पर आधारित हैं, उनमें न तो 'पट्टाधीश' शब्द का प्रयोग है, न 'भट्टारक' शब्द का । उनमें 'पट्ट' 'पट्टस्थ' और 'आचार्य' शब्दों
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