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________________ [चौरासी] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ १. प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय (प्र.२ / शी. १-६) में सिद्ध किया गया है कि बोटिक शिवभूति यापनीयसंघ का संस्थापक था ही नहीं, उसने तो दिगम्बरमत का वरण किया था। अतः आचार्य कुन्दकुन्द के उसके साक्षात् या परम्परा-शिष्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता। २. कुन्दकुन्द आंरभ में यापनीय थे, इसका उल्लेख न तो कुन्दकुन्द ने स्वयं अपने किसी ग्रन्थ में किया है, न किसी अन्य ग्रन्थ या शिलालेख में मिलता है। अतः सिद्ध है कि यह मुनि श्री कल्याणविजय जी द्वारा की गयी कपोलकल्पना है। ३. प्रस्तुत ग्रन्थ के दशम अध्याय में इस बात की सप्रमाण सिद्धि की गयी है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी तथा ईसोत्तर प्रथम शताब्दी) में हुए थे तथा सप्तम अध्याय में यह सिद्ध किया गया है कि यापनीयमत की उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुयी थी। इससे भी सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द को यापनीयसंघ में दीक्षित मानना कपोलकल्पना मात्र है। ४. कुन्दकुन्द ने बोधपाहुड (गाथा ६१-६२) में अपने को श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्पराशिष्य बतलाया है, न कि बोटिक शिवभूति का। उनके इस कथन में अविश्वास और मुनि कल्याणविजय जी के वचन में विश्वास करने का कोई आधार नहीं है। श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने मुनि श्री कल्याणविजय जी की कल्पना से मिलती-जुलती दूसरी कल्पना की है। उनका कथन है कि कुन्दकुन्द सर्वप्रथम वीरनिर्वाण सं० १००० (विक्रम सं० ५३० = ई० सन् ४७३) में अपने दादा गुरु माघनन्दी द्वारा स्थापित भट्टारकपरम्परा में भट्टारकपद पर दीक्षित हुए थे। माघनन्दी के शिष्य भट्टारक जिनचन्द्र कुन्दकुन्द के गुरु थे। (देखिये, अध्याय १०/प्र.३ / शी.१ तथा अध्याय ८/ प्र.२ / शी.१)। आचार्य जी का तर्क है कि "दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी (Vol. xx) में प्रकाशित नन्दिसंघ की पट्टावली इतिहास के विद्वानों द्वारा कालक्रमानुसार तैयार की गई भट्टारकपरम्परा के प्रमुख संघ नन्दिसंघ की पट्टावली है। यह वस्तुतः भट्टारकपरम्परा की मूल पट्टावली है। इसमें सभी आचार्यों के लिए सात बार पट्टाधीश विशेषण और दो बार भट्टारक विशेषण का प्रयोग किया गया है। इस पट्टावली में आचार्य कुन्दकुन्द को भट्टारक-परम्परा का पाँचवाँ पट्टाधीश बतलाया गया है।" (देखिये, अध्याय ८/प्र.२/ शी. १)। आचार्य श्री हस्तीमल जी ने 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' (भाग ३/ पृ.१२६-१४३) में भट्टारकपरम्परा के विकास के तीन रूप बतलाये हैं। यथा १. वीर नि० सं० ६०९ (ई० सन् ८२) के लगभग हुए संघभेद के थोड़े समय पश्चात् ही श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय, तीनों संघों के कुछ श्रमणों ने चैत्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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