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________________ ग्रन्थसार [ पचासी ] में रहना प्रारंभ कर दिया था। कुछ समय बाद वे भूमिदान और द्रव्यदान लेने लगे, तब भट्टारक- परम्परा शुरू हो गयी । भट्टारकपरम्परा का यह प्रथम स्वरूप था । इसका अस्तित्व वीर नि० सं० ६४० से ८८० ( ई० सन् ११३ से ३५३) तक रहा। २. वीरनिर्वाण की नौवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में भट्टारकों के पीठ स्थापित होने लगे और उन्होंने राजाओं को प्रभावित कर राज्याश्रय प्राप्त करना भी शुरू कर दिया। मंत्र-तंत्र, ज्योतिष और औषधि आदि के प्रयोग से जनमानस को भी अपने अधीन किया जाने लगा । यह भट्टारक - परम्परा का द्वितीय स्वरूप था, जो ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी तक विद्यमान रहा । ३. बारहवीं शती ई० में दिगम्बरसम्प्रदाय के भट्टारक न केवल वस्त्र धारण करने लगे, अपितु प्रचुर परिग्रह एवं मठों के स्वामी बनकर राजसी ठाठबाट से जीवन व्यतीत करने लगे, साथ ही श्रावकों के धार्मिक शासक बने गये। यह भट्टारकपरम्परा का तीसरा और अन्तिम रूप था । आचार्य हस्तीमल जी ने भट्टारकपरम्परा के इन तीन रूपों में से आचार्य कुन्दकुन्द को दूसरे रूप के अन्तर्गत पाँचवाँ पट्टाधीश माना है। उनका कथन है कि जब कुन्दकुन्द को धर्म के तीर्थंकरप्रणीत वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ, तब उन्हें अपने तथा अपने गुरु के भट्टारकीय भ्रष्टाचरण के प्रति अश्रद्धा हो गयी और वे भट्टारकसम्प्रदाय से अलग हो गये। अलग होकर उन्होंने तीर्थंकरप्रणीत वास्तविकधर्म का पुनरुत्थान किया । इस तरह भट्टारकीय भ्रष्टाचरण से दूषित अपने गुरु जिनचन्द्र के प्रति अश्रद्धा हो जाने से ही कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में उनके नाम का स्मरण नहीं किया। (देखिये, अध्याय ८ / प्र.२ / शी. १) । निरसन - आचार्य श्री हस्तीमल जी की ये सारी मान्यताएँ असमीचीन हैं। इसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है १. आचार्य जी ने भट्टारकपरम्परा के विकास के जो तीन रूप बतलाये हैं, वे अप्रामाणिक हैं। कुछ मुनियों में चैत्यवास, भूमिग्रामादिदान- ग्रहण, मंत्रतंत्र - ज्योतिष - औषधि के प्रयोग द्वारा ख्यातिलाभ - जीविकोपार्जन आदि की प्रवृत्तियाँ सदा रही हैं । कुन्दकुन्द ने इन्हें अनादिकालीन कहा है ( भावपाहुड / गा. १४) और इनका आश्रय लेनेवाले मुनियों को आगम में पासत्थ (पार्श्वस्थ ), कुसील ( कुशील), संसत्त (संसक्त), ओसण्ण (अवसन्न) और जहाछंद या मिगचरित्त ( यथाछन्द या मृगचरित्र) मुनि के नाम से अभिहित किया गया है । (देखिये, अध्याय ८ / प्र.४ / शी. ३ ) । इसलिए जैनपरम्परा के मुनियों में इन प्रवृत्तियों का विकास वीरनिर्वाण के ६०९ वर्ष बाद मानना प्रामाणिक नहीं है। अनादिकालीन होने से इन्हें विकसित नहीं माना जा सकता। और यदि विकसित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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