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________________ ग्रन्थसार [तिरासी] अतः उक्त गणों के साथ 'मूलसंघ' का उल्लेख होने से यह सिद्ध नहीं होता कि वह यापनीयसंघ का नाम था। (अध्याय ७/प्र.३ / शी.३, ४)। निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) ही मूलसंघ था। इसका एक स्पष्ट प्रमाण 'षड्दर्शनसमुच्चय' की गुणरत्नकृत टीका में मिलता है-"दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च। ते चतुर्धा काष्ठासङ्घ-मूलसङ्घमाथुरसङ्घगोप्यसङ्घभेदात्।" इसमें दिगम्बरों के संघ को ही 'मूलसंघ' कहा गया है। (अध्याय ७/प्र.३/शी.५,६)। १३. अपने जन्मकाल (पाँचवीं शती ई०) से एक हजार वर्ष (१५०० ई०) के भीतर ही यापनीयसंघ का लोप हो गया। इसके कारण थे-सैद्धान्तिक असंगतता और साधुओं की गृहस्थवत् लौकिक प्रवृत्तियाँ। अचेल और सचेल दोनों लिगों से मुक्ति का यापनीय-सिद्धान्त लोगों के गले नहीं उतरा। जब वस्त्रधारण करते हुए भी मुक्ति हो सकती है, तब नग्न होने की क्या आवश्यकता? लोगों के इस प्रश्न का समाधान न हो सकने से उनका यापनीयसंघ से मोहभंग हो गया। यही उसके विलोप का मुख्य कारण था। दिगम्बरसंघ केवल अचेललिंग से मुक्ति मानता है और श्वेताम्बरसंघ केवल सचेललिंग से, अतः उनमें उक्त असंगतता न होने से वे लोप से बच गये। द्वितीय खण्ड कुन्दकुन्द का समय षट्खण्डागम एवं कसायपाहुड की कर्तृपरम्परा अध्याय ८-कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त कुन्दकुन्द ने स्वयं को अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्परा-शिष्य तो कहा है, किन्तु अपने साक्षाद् गुरु का किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं किया। मुनि कल्याणविजय जी ने इसका कारण यह बतलाया है कि 'कुन्दकुन्द आरम्भ में बोटिक शिवभूति द्वारा स्थापित यापनीयसंघ में दीक्षित हुए थे। वे शिवभूति के साक्षात् शिष्य नहीं थे, अपितु परम्पराशिष्य थे। किन्तु आगे चलकर उन्हें उस संघ की चैत्यवास, भूमिग्रामादिदानग्रहण एवं आपवादिक-सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि की मान्यताएँ अच्छी नहीं लगीं। इसलिए वे उससे अलग हो गये और यतः उनके गुरु इन धर्मविरुद्ध प्रवृत्तियों के समर्थक थे, अतः उन्होंने उन्हें अपना गुरु मानना छोड़ दिया। इसी कारण उन्होंने अपने ग्रन्थों में उनके नाम का उल्लेख नहीं किया।' मुनि जी का यह मत सर्वथा कपोलकल्पित है, यह निम्नलिखित तथ्यों से सिद्ध होता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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