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________________ [ बयासी ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ मुख्तार को पटना से दिनांक १२/४ / १९३० ई० को दी थी । (अध्याय ७/ प्र. २/ शी. ५,६) । १२. मुनि कल्याणविजय जी ने दिगम्बरजैन - परम्परा को अर्वाचीन सिद्ध करने के लिए यह कथा गढ़ी है कि उसकी स्थापना आचार्य कुन्दकुन्द ने विक्रम की छठी शताब्दी में दक्षिण भारत में की थी। किन्तु ३७० ई० एवं ४२५ ई० की नोणमंगलताम्रपट्टिकाओं (क्र ९० एवं ९४ ) में दिगम्बर जैनसंघ (निर्ग्रन्थसंघ) के दूसरे नाम मूलसंघ का उल्लेख होने से उनकी यह कथा मनगढ़न्त सिद्ध हो जाती है। इसलिए उन्होंने इसकी मनगढन्तता को छिपाने के लिए एक दूसरी कथा गढ़ी है कि 'मूलसंघ' दिगम्बरसंघ का नाम नहीं था, अपितु बोटिक शिवभूति ने अपने द्वारा प्रवर्तित सचेलाचेल-सम्प्रदाय का उत्तरभारत में 'मूलसंघ' नाम रखा था, जो दक्षिण में जाने पर 'यापनीय' नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह कथा मनगढ़न्त इसलिए है कि बोटिक शिवभूति ने सचेलाचेल - सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया ही नहीं था, जिसका दक्षिण में जाने पर 'यापनीयसंघ' नाम पड़ता । 'विशेषावश्यकभाष्य', 'प्रवचनपरीक्षा' आदि ग्रन्थों में शिवभूति को सर्वथा अचेल बोटिकसम्प्रदाय का प्रवर्तक कहा गया है और बोटिकसम्प्रदाय को दिगम्बरजैन-सम्प्रदाय कहा है। अतः यदि शिवभूति ने अपने सम्प्रदाय को उत्तरभारत में मूलसंघ नाम दिया था, तो दिगम्बरजैन संघ का ही 'मूलसंघ' नाम था, यह सिद्ध होता है। वस्तुतः उसने दिगम्बर जैन - सम्प्रदाय का भी प्रवर्तन नहीं किया था, अपितु उसे अंगीकार किया था, यह पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है। दूसरे, मूलसंघ उसे कहा जाता है, जिससे कोई नया संघ उत्पन्न हो । यापनीयसंघ से कोई नया संघ उत्पन्न नहीं हुआ, इसलिए उसका मूलसंघ नाम युक्तिसंगत नहीं है। शिलालेखों में 'श्रीमूलसंघदपो (पु) न्नागवृक्षमूलगण' तथा 'श्रीमूलसंघान्वयक्रागण' इन उल्लेखों को देखकर डॉ० सागरमल जी ने माना है कि ये गण यापनीयों के थे तथा मूलसंघ के साथ उनका उल्लेख हुआ है, इससे सिद्ध है कि 'मूलसंघ' यापनीयसंघ का ही नाम था, किन्तु यह डॉक्टर सा० की एकान्त - दृष्टि का परिणाम है। वस्तुतः 'पुन्नागवृक्षमूलगण' यापनीयसंघ और मूलसंघ दोनों में था । इसी प्रकार नन्दिसंघ भी दोनों में था । इनमें भेद प्रदर्शित करने के लिए यापनीयसंघ के पुन्नागवृक्षमूलगण एवं नन्दिसंघ के साथ 'यापनीय' शब्द का प्रयोग किया गया है तथा मूलसंघ के पुन्नागवृक्षमूलगण एवं नन्दिसंघ के साथ 'मूलसंघ' का । तथा यापनीयसंघ में 'क्राणूगण' नहीं था, अपितु 'कण्डूर्गण' था। क्राणूगण केवल दिगम्बरसंघ में था । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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