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________________ [ इक्यासी ] ८. यापनीयसंघ एक ऐसा संघ था, जिसके साधु मानते थे कि मुक्ति के लिए नग्न रहना आवश्यक नहीं है, फिर भी नग्न रहते थे । इसका क्या प्रयोजन था ? कुछ विद्वानों की धारणा है कि इसका प्रयोजन दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों को एकदूसरे के आचार-विचार अपनाकर एक होने की प्रेरणा देना था । किन्तु, यापनीयसम्प्रदाय का प्रणेता इतना मूढ़ नहीं रहा होगा कि वह दिगम्बरों और श्वेताम्बरों को इस हद तक मूर्ख मान ले कि वे अपनी आस्था - विरुद्ध मान्यताओं को स्वीकार कर एक हो जायेंगे। अतः विद्वानों की उपर्युक्त धारणा अयुक्तियुक्त है । वस्तुतः नग्न वेशधारण करने का प्रयोजन था अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लोकमान्यता और राजमान्यता की प्राप्ति, क्योंकि दक्षिण में यही वेश राजमान्य और लोकमान्य था । (अध्याय ७/प्र.१/शी. ६) । ग्रन्थसार ९. ईसापूर्व द्वितीय शती के सम्राट् खारवेल के हाथी गुम्फाभिलेख में यापञवकेहि (यापज्ञापकेभ्यः) पद का प्रयोग हुआ है। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने पहले उसका अर्थ 'यापनीय - आचार्य के लिए' किया था, जिससे द्वितीय शती ई० पू० में यापनीयसंघ के अस्तित्व का प्रसंग आता था । किन्तु श्वेताम्बरमुनि श्री पुण्यविजय जी ने उसका अर्थ 'धर्म का निर्वाह करनेवालों के लिए' बतलाया, जिसे माननीय जायसवाल जी ने स्वीकार कर लिया । किन्तु वह अर्थ भी समीचीन नहीं है । वस्तुतः उक्त पद का समीचीन अर्थ 'धर्मोपदेशकों के लिए' है। (अध्याय ७/ प्र. २ / शी. २) । १०. यापञवकेहि इस पद को 'यापज्ञापकेभ्यः' (धर्मनिर्वाहकों के लिए) इस प्रकार चतुर्थ्यन्त मानकर तथा चिनवतानि वाससितानि शब्दों को रेशमी और श्वेत वस्त्र का वाचक मानकर मुनि श्री पुण्यविजय जी ने यह अर्थ ग्रहण किया है कि सम्राट् खारवेल ने श्वेताम्बरसाधुओं को वस्त्रदान किया था, अतः वह श्वेताम्बर था । किन्तु 'यापञवकेहि' पद चतुर्थ्यन्त नहीं, अपितु तृतीयान्त है, इसलिए उससे उपर्युक्त अर्थ प्रतिपादित नहीं होता। अतः 'यापज्ञापक' शब्द से श्वेताम्बरसाधु अर्थ नहीं लिया जा सकता, फलस्वरूप खारवेल को श्वेताम्बर नहीं माना जा सकता। (अध्याय ७/ प्र.२/ शी. ३,४,५ ) । ११. हिमवन्त थेरावली नाम की एक झूठी थेरावली रची गयी, जिसमें सम्राट् खारवेल को चेदिवंश की जगह चेटवंश में उत्पन्न बतलाकर श्वेताम्बर सिद्ध करने का प्रयास हुआ। इसके समर्थन और विरोध में क्रमशः मुनि कल्याणविजय जी और बाबू कामताप्रसाद जी के तीन लेख 'अनेकान्त' में प्रकाशित हुए । 'हिमवन्त-थेरावली' की खोजबीन की गयी और यह पाया गया कि उसमें खारवेलवाला अंश झूठा है । इसकी सूचना मुनि जिनविजय जी ने 'अनेकान्त' के सम्पादक पं० जुगलकिशोर जी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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