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ग्रन्थसार
[उन्यासी] परतीर्थिकमुक्ति, केवलि-कवलाहार और महावीर का गर्भपरिवर्तन आदि बातों में विश्वास करते थे। यापनीयसाधु श्वेताम्बरसाधुओं के ही समान शिष्यों को 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद देते थे। श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानने से उनके रचयिता आचार्य ही यापनीयों के पूर्वाचार्य थे। यापनीय गोप्य भी कहलाते थे। दिगम्बराचार्यों ने यापनीयों को पाँच जैनाभासों में परिगणित किया है। (अध्याय ७/प्र.१ / शी.१)।
३. यापनीयों ने श्वेताम्बर-आगमों को ही अपना लिया था, इसलिए उन्हें मौलिक ग्रन्थों के निर्माण की आवश्यकता नहीं हुई। उन्होंने वही ग्रन्थ रचे हैं, जो दिगम्बरपरम्परा के स्त्रीमुक्तिनिषेध आदि सिद्धान्तों के खण्डन और अपने मत की पुष्टि के लिए आवश्यक थे। श्री हरिभद्रसूरि ने 'ललितविस्तरा' में एक यापनीयतन्त्र नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो अनुपलब्ध है। वर्तमान में केवल यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन के तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं-स्त्रीनिर्वाणप्रकरण, केवलिभुक्तिप्रकरण एवं शाकटायनव्याकरण। उनका एक साहित्य-विषयक ग्रन्थ भी था।
___४. दिगम्बर जैन विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने भगवती-आराधना, उसकी विजयोदया टीका, मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र, इन दिगम्बरजैन-ग्रन्थों को यापनीयआचार्यों द्वारा रचित बतलाया है और श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी जैन ने तो दिगम्बराचार्यों द्वारा रचित कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना आदि सोलह ग्रन्थों को यापनीयों के खाते में तथा तत्त्वार्थसूत्र एवं सन्मतिसूत्र को श्वेताम्बर-यापनीयों की कपोलकल्पित मातृपरम्परा (उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा) के खाते में डाल दिया है। इनमें से एक भी ग्रन्थ यापनीय-परम्परा अथवा श्वेताम्बर-यापनीयों की कपोलकल्पित मातृपरम्परा का नहीं हैं, यह उनमें वर्णित यापनीयमत-विरुद्ध अथवा श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा-विरुद्ध सिद्धान्तों से प्रमाणित है। (अध्याय ११-२५)।
५. हरिषेण के बृहत्कथाकोश और रत्ननन्दी के भद्रबाहुचरित में यापनीयसंघ की उत्पत्ति श्वेताम्बरसंघ से बतलायी गयी है, यह शतप्रतिशत सत्य है। इसकी पुष्टि श्वेताम्बरों और यापनीयों के सिद्धान्तों, आगमों एवं आचार्यपरम्परा की अभिन्नता से होती है। (अध्याय ७ /प्र.१ / शी.५)।
६. मुनि कल्याणविजय जी, डॉ० हीरालाल जैन एवं पं० दलसुख मालवाणिया ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि श्वेताम्बरसाधु बोटिक शिवभूति ने वीरनिर्वाण सं० ६०९ (ई० सन् ८२) में यापनीयसंघ की स्थापना की थी। डॉ० सागरमल जी ने बोटिक शिवभूति द्वारा यापनीयसंघ की स्थापना ईसा की पाँचवीं सदी के प्रारंभ में सिद्ध करने की चेष्टा की है। किन्तु यह सर्वथा मिथ्या है। आवश्यक-मूलभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकनियुक्ति, प्रवचनपरीक्षा आदि श्वेताम्बरग्रन्थों में बोटिक
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