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________________ [ अठहत्तर ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ कहा गया है, किन्तु वास्तव में दोनों सचेल हैं । (अध्याय २/ प्र.३/ शी. ३.३) । जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद उनमें से कटिवस्त्ररहित - प्रच्छादकसहित - सचेल जिनकल्प का भी आचरण असंभव मान लिया गया, जिससे केवल कटिवस्त्र- प्रच्छादकसहित-सचेल स्थविरकल्प को धारण करनेवाले साधु ही शेष रह गये । (अध्याय २ / प्र. ३ / शी. ३.५) । इस प्रकार डॉ० सागरमल जी ने ईसा की पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण में जिस उत्तरभारतीय - सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति बतलायी है, उसका अस्तित्व ही नहीं था । अतः डॉक्टर सा० का यह मत अप्रामाणिक है कि उत्तरभारतीय - सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय संघों का उद्भव हुआ था । जम्बूस्वामी पर्यन्त दिगम्बर और श्वेताम्बर संघों की गुरु-शिष्यपरम्परा का अभिन्न होना और तत्पश्चात् भिन्न हो जाना इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि भगवान् महावीर - प्रणीत अचेल -निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से ही दिगम्बर - श्वेताम्बर संघ अस्तित्व में आये । अध्याय ७ – यापनीयसंघ का इतिहास १. यापनीयसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख पाँचवी शती ई० (४७०-४९० ई०) के कदम्बवंशी राजा मृगेशवर्मा के हल्सी - ताम्रपत्रलेख में हुआ है। तत्पश्चात् ८वीं शती ई० के श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने अपने ललितविस्तरा ग्रन्थ में यापनीयतन्त्र नामक यापनीयग्रन्थ का उल्लेख किया । हरिषेण (९३१ ई०) के बृहत्कथाकोश में, देवसेनसूरि (९३३ ई०) के दर्शनसार में, इन्द्रनन्दी ( ११वीं शती ई०) के नीतिसार में षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्नसूरिकृत टीका (१४वीं शती ई०) में, दंसणपाहुड पर श्रुतसागरसूरि (१५ वीं शती ई०) द्वारा रचित व्याख्या में तथा रत्ननन्दी (१६वीं शती ई०) के भद्रबाहुचरित में यापनीयसंघ का वर्णन मिलता है। इस प्रकार ईसा की पाँचवी शताब्दी के उत्तरार्ध से पूर्व यापनीयसंघ का उल्लेख न तो किसी ग्रन्थ में उपलब्ध होता है, न किसी शिलालेख में। इससे अनुमान होता है कि उसका उदय ईसा की पाँचवीं सदी के प्रारम्भ में हुआ था । वह ईसा की १५ वीं शती तक विद्यमान रहा, पश्चात् उसका लोप हो गया। इसका केन्द्र दक्षिण भारत था । i २. यापनीयसम्प्रदाय अचेल और सचेल दोनों लिंगों से मुक्ति मानता था, अतः यापनीय साधु दिगम्बरसाधुओं के समान नग्न भी होते थे और श्वेताम्बरमुनियों के समान सवस्त्र भी। नग्न साधु दिगम्बरमुनियों के समान मयूरपिच्छी भी रखते थे और पाणितल में भोजन करते थे । वे नग्न जिनप्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित कराते थे और उनकी पूजा करते थे। इसके अतिरिक्त उनकी समस्त मान्यताएँ श्वेताम्बरों के समान थीं । वे श्वेताम्बर - आगमों को ही मानते थे । अतः उनमें वर्णित सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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