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________________ ग्रन्थसार [ सतहत्तर ] की तथा अचेलता के पक्षधर यापनीयसंघ की उत्पत्ति हुई । अर्थात् भगवान् महावीरप्रणीत निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से दिगम्बर - श्वेताम्बर - संघभेद नहीं हुआ, अपितु श्वेताम्बरयापनीय - संघभेद हुआ । इस कल्पना से डॉक्टर सा० ने निम्नलिखित लक्ष्य साधने की चेष्टा की है १. श्वेताम्बरमत को सर्वज्ञ - महावीर - प्रणीत सम्यक् मत और दिगम्बरजैनमत को छद्मस्थप्रणीत निह्नवमत (मिथ्यामत) सिद्ध करना । २. महावीर के तीर्थ को सचेलाचेल सिद्ध करना । ३. श्वेताम्बरों और यापनीयों को हीं महावीर की परम्परा का उत्तराधिकारी ठहराना । ४. और इस प्रकार जो ग्रन्थ श्वेताम्बरों का नहीं है और स्पष्टतः यापनीयों का भी नहीं है, किन्तु जिसकी कुछ विषयवस्तु श्वेताम्बरग्रन्थों की विषयवस्तु से मिलतीजुलती है, उसे यदि वह यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति के पूर्व रचा गया है, तो उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के आचार्यों द्वारा रचित सिद्ध करना और यदि उसके बाद रचा गया है, तो उस संघ के उत्तराधिकारी यापनीयसंघ के आचार्य द्वारा रचित बतलाना और इस तरह उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का अपलाप करना । (अध्याय २/ प्र. ३ / शी. १) । डॉक्टर सा० का उपर्युक्त मत सर्वथा कपोलकल्पित है । उत्तरभारत में तो क्या, भारत के किसी भी कोने में, कभी भी, सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का अस्तित्व नहीं था । इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं १. भगवान् महावीर ने सचेलाचेल धर्म का नहीं, अपितु अचेलकधर्म का उपदेश दिया था, यह श्वेताम्बरीय उत्तराध्ययनसूत्र की 'अचेलगो य जो धम्मो' (२३ / २९) इस गाथा से ही सिद्ध है। अचेलकधर्म का उपदेश देने से यह भी सिद्ध है कि तीर्थंकर महावीर ने अचेलक साधु को ही निर्ग्रन्थ शब्द से अभिहित किया है, अतः उनके द्वारा प्रणीत निर्ग्रन्थसंघ अचेल ही था, सचेलाचेल नहीं। (अध्याय २ / प्र. ३ / शी. ३) । २. समस्त दिगम्बरजैन साहित्य, सम्पूर्ण वैदिक (हिन्दू) साहित्य, सकल बौद्धसाहित्य, संस्कृतसाहित्य और निर्ग्रन्थसंघ या मूलसंघ का उल्लेख करनेवाले सभी शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों में तीर्थंकर महावीर और उनके अनुयायी दिगम्बर साधुओं को ही निर्ग्रन्थ शब्द से सम्बोधित किया गया है। इससे भी प्रमाणित है कि महावीर का अनुयायी निर्ग्रन्थसंघ अचेल ही था । ३. श्वेताम्बरग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में साध्वाचार के दो भेद माने गये हैं - जिनकल्प और स्थविरकल्प । इनमें जिनकल्प को अचेल और स्थविरकल्प को सचेल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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