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________________ [छिहत्तर] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ साथ निर्ग्रन्थों को भूमिदान का वर्णन है। (देखिये, अध्याय २/ प्र.६ / शी. २)। इस तरह अभिलेख भी इस तथ्य के प्रमाण हैं कि निर्ग्रन्थश्रमणसंघ अर्थात् दिगम्बरजैनपरम्परा सम्राट अशोक के काल (ईसापूर्व तृतीय शताब्दी) से पूर्ववर्ती है। अध्याय ६-दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास प्रायः सभी दिगम्बरजैनों की यह धारणा है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद ईसापूर्व चौथी शताब्दी में श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के फलस्वरूप हुआ था। किन्तु यह धारणा संशोधनीय है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में दिगम्बरश्वेताम्बर-भेद नहीं हुआ था, अपितु दिगम्बर-अर्धफालक-भेद हुआ था। दिगम्बरश्वेताम्बर-भेद तो जम्बूस्वामी के निर्वाण (वीर नि० सं० ६२ = ४६५ ई० पू०) के पश्चात् ही हो गया था। इसका प्रमाण यह है कि उनके निर्वाण के पश्चात् ही दोनों सम्प्रदायों की गुरु-शिष्य-परम्परा अलग-अलग हो गयी थी। दिगम्बर-परम्परा में जम्बूस्वामी के बाद क्रमशः विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु इन पाँच श्रुतकेवलियों के नाम मिलते हैं, जब कि श्वेताम्बरपरम्परा में प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूतिविजय और भद्रबाहु के नाम हैं। गुरु-शिष्यपरम्परा में यह भेद स्पष्टतः संघ-भेद का सूचक है। (अ.६ / प्र. १ / शी. ३)। निर्ग्रन्थसंघ से पहली बार तो श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति शीतादिपरीषहों की पीड़ा सहने में असमर्थ साधुओं के अचेलत्व को छोड़कर वस्त्रपात्र-कम्बल आदि ग्रहण कर लेने से हुई थी, किन्तु दूसरी बार उससे (निर्ग्रन्थसंघ से) अर्धफालकसंघ का जन्म द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण आहारप्राप्ति में उत्पन्न कठिनाइयों के फलस्वरूप हुआ था। अर्धफालक साधु नग्न रहते थे, किन्तु वायें हाथ पर सामने की ओर आधा वस्त्र लटकाकर गुह्यांग छिपाते थे। इस कारण वे अर्धफालक नाम से प्रसिद्ध हुए। भिक्षा लाने के लिए वे पात्र भी रखते थे। उनका अस्तित्व ईसा की प्रथम शताब्दी तक बना रहा। बाद में वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विलीन हो गये। (अ.६/प्र.१/शी.१०)। मथुरा के कंकालीटीले में उपलब्ध अनेक नग्न जिनप्रतिमाएँ इसी सम्प्रदाय के द्वारा बनवायी गयी थीं। डॉ० सागरमल जी ने एक बहुत ऊँची, बहुलक्ष्यसाधक, ऐतिहासिक कल्पना की है। उन्होंने कल्पित किया है कि निर्ग्रन्थसंघ दो थे : उत्तरभारतीय और दक्षिणभारतीय। उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थसंघ सचेलाचेल था और महावीर द्वारा प्रणीत था तथा दक्षिण भारतीय निर्ग्रन्थसंघ अचेल था और उसकी नींव विक्रम की छठी सदी में दक्षिणभारत के आचार्य कुन्दकुन्द ने डाली थी। ईसा की पाँचवीं शती के प्रारम्भ में उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का विभाजन हुआ, जिससे सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बरसंघ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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