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________________ ग्रन्थसार [पचहत्तर] धार्मिक क्रियाओं में दैनिक सान्निध्य धार्मिक मतभेदों की याद दिलाता है और उन्हें प्रकट होने का अवसर देता है, जिससे विवाद और कलह अवश्यंभावी है। तथा सामूहिक मन्दिर और उसे दान में मिली सम्पत्ति स्वामित्व के संघर्ष को जन्म देती है, जो हिंसात्मक प्रवृत्तियों में परिणत हो जाता है। इसलिए विभक्त हुए विरोधी सम्प्रदाय ऐसे अवसरों को टालते हैं, अर्थात् अपने पूजा-उपासना के स्थान भी अलग कर लेते हैं। दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के सामने ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं थी, कि इतने गंभीर मतभेद के बाद भी एक ही मन्दिर में अपनी मान्यताओं के विरुद्ध निर्मित जिनप्रतिमा को जिनबिम्ब मानकर पूजते रहते। (अध्याय ५ / प्र. १ / शी. ९.२)। उक्त मत सिद्धान्त-विरुद्ध भी है। जो श्वेताम्बरसंघ नग्न जिनप्रतिमा को जिनबिम्ब ही न मानता हो, उसके द्वारा उसकी पूजा किया जाना असंभव है। वस्तुतः मन्दिर तो उसी दिन अलग-अलग हो गये होंगे, जिस दिन भिन्न विचाराधारा को लेकर साधुओं का एक वर्ग निर्ग्रन्थसंघ से अलग हुआ था। जहाँ पुरुषतीर्थंकर और स्त्रीतीर्थंकर के मतभेद एवं उपासनापद्धति की भिन्नता के कारण मन्दिर ही मतभेद का कारण बन गया हो, वहाँ सम्प्रदायभेद हो जाने पर भी मन्दिर अलग न हो, यह संभव नहीं है। यदि ईसा की छठी सदी के पहले की श्वेताम्बर-सिद्धान्तानुसार बनी जिनप्रतिमा उपलब्ध नहीं हुई, तो श्वेताम्बराचार्य हस्तीमल जी का यही निष्कर्ष युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि उस समय तक श्वेताम्बरसम्प्रदाय में मूर्तिपूजा प्रचलित नहीं हुई थी, किन्तु यह अटकल कदापि युक्तिसंगत नहीं है कि उस समय तक श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के मंदिर अलग-अलग नहीं थे और वे एक ही मन्दिर में नग्न जिनप्रतिमा की पूजा-उपासना करते थे। अभिप्राय यह कि हड़प्पा और लोहानीपुर से उपलब्ध नग्न जिनप्रतिमाओं और मथुरा के कंकालीटीले से प्राप्त कुछ नग्न तीर्थंकरमूर्तियों से सिद्ध होता है कि दिगम्बरजैनपरम्परा ईसा से कम से कम ढाई हजार वर्ष पुरानी है। अभिलेखों से भी दिगम्बरजैन-परम्परा की प्राचीनता सिद्ध होती है। सम्राट अशोक (ईसापूर्व तृतीय शती) के सातवें देहली-टोपरा-स्तम्भलेख में सभी धार्मिक सम्प्रदायों तथा ब्राह्मणों, आजीविकों और निर्ग्रन्थों के कल्याणकारी कार्यों की देख-रेख के लिए धर्ममहामात्य नियुक्त किये जाने का उल्लेख है। पाँचवीं शती ई० के कदम्बवंशी राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के देवगिरि-ताम्रपत्रलेख (क्र. ९८) में लिखित है कि उसने कालवंग नामक ग्राम का एकभाग जिनालय के लिये, दूसरा भाग श्वेतपटमहाश्रमणसंघ के लिए तथा तीसराभाग निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ के लिए दान किया था। राजा मृगेशवर्मा (४७०-४९० ई०) के हल्सी-ताम्रपत्र-लेख (क्र.९९) में यापनीयों और कूर्चकों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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