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[चौहत्तर]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ है कि वस्तुतः प्राचीनकाल में श्वेताम्बरसम्प्रदाय में मूर्ति-पूजा प्रचलित ही नहीं थी, इसलिए छठी शताब्दी ई० के पूर्व तक श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में न तो किसी जिनप्रतिमा का निर्माण हुआ और न कोई जिनमन्दिर बनवाया गया। (अ.५ / प्र. ३ / शी. २)।
__ प्रत्यक्षप्रमाण से उपर्युक्त कथन सत्य प्रतीत होता है। प्रवचनपरीक्षा ग्रन्थ में श्वेताम्बरमुनि उपाध्याय धर्मसागर जी ने लिखा है कि गिरनारविवाद के पश्चात् जिनप्रतिमाओं के स्वामित्व के विषय में आगे कोई विवाद न हो, इस विचार से श्वेताम्बरों ने अपने द्वारा बनवायी जानेवाली प्रतिमाओं के पादमूल में पल्लवचिह्न (वस्त्रपट्टिका का आकार) बनवाना शुरू कर दिया, तथा दिगम्बर स्वनिर्मापित प्रतिमाओं में लिंगादि-गुह्यांगों की रचना कराने लगे। (अध्याय ५/प्र.१ / शी.२)। ऐसी जो श्वेताम्बर-जिन-प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वे छठी शती ई० के बाद ही निर्मित हुई हैं। मथुरा के कंकालीटीले में उपलब्ध कुषाणकालीन (प्रथम शताब्दी ई० की) नग्न तीर्थंकर मूर्तियाँ श्वेताम्बरों द्वारा प्रतिष्ठापित नहीं हैं, अपितु जिन तीर्थंकर-मूर्तियों के पादपीठ या आयागपट्ट पर अर्धफालकधारी साधु की मूर्ति उत्कीर्ण है, वे अर्धफालक-सम्प्रदाय द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थीं। इस सम्प्रदाय को नग्न जिनमूर्तियों के दर्शन-पूजन से परहेज नहीं था। अन्य नग्न जिनप्रतिमाएँ दिगम्बरों द्वारा प्रतिष्ठापित हुई थीं। (अध्याय ५ / प्र.१ / शी. ६,७,८)।
ईसा की छठी शताब्दी के पहले की कोई भी गुह्यांगाकार-रहित अथवा पल्लवचिह्नयुक्त जिनप्रतिमा उपलब्ध न होने से पं० नाथूराम जी प्रेमी, डॉ० यू० पी० शाह, डॉ० सागरमल जी जैन आदि विद्वानों का मत है कि ईसा की छठी सदी के पूर्व तक दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के मन्दिर और प्रतिमाएँ अलग-अलग नहीं थीं, वे एक ही मन्दिर में एक ही नग्न जिनप्रतिमा की पूजा-उपासना करते थे। (अध्याय ५/ प्र.१/शी.२ एवं ९.१)।
यह मत प्रमाणविरुद्ध है। छठी शती ई० के पूर्व भी निर्ग्रन्थों, यापनीयों और कूर्चकों के मन्दिर अलग-अलग थे और उनका स्वामित्व अलग-अलग था, यह शिलालेखों से प्रमाणित है। (अध्याय ५ / प्र.१ / शी. ९.१)। अतः यदि श्वेताम्बरसंघ भी मूर्तिपूजक था, तो ईसा की छठी शती के पूर्व उसके भी स्वतन्त्र मन्दिर रहे होंगे।
उक्त मत मानवस्वभाव के विरुद्ध होने से अयुक्तियुक्त भी है। जिन संघों के साधुओं का सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि की मान्यताओं के विषय में गंभीर मतभेद होने के कारण साथ-साथ रहना दूभर हो गया था, जिनमें एक साधुसंघ मल्लिनाथ को स्त्री मानता था और दूसरा पुरुष, जो एक-दूसरे के आगमों को स्वकल्पित बतलाते थे और एक-दूसरे के मत को मिथ्यामत, उनका किसी एक मन्दिर में प्रतिदिन पूजा-उपासना करना संभव नहीं था। क्योंकि धार्मिक विरोधियों का धार्मिक स्थल और
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