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ग्रन्थसार
[ तिहत्तर ]
न कर म्लानवस्त्र, तुण्डवस्त्र ( मुखवस्त्रिका ), गुम्फिपात्र, और मार्जनी (रजोहरण) धारण करनेवाला तथा 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद देनेवाला, इन विशेषणों से वर्णित किया गया है । (अध्याय ४ / प्र. १ / शी. २९) ।
ईसापूर्व छठी शती के त्रिपिटक - संगृहीत बुद्धवचनों में निर्ग्रन्थों को अहीक, अचेल और नग्न विशेषणों से अभिहित किया गया है, इससे सिद्ध है कि दिगम्बरजैनपरम्परा ईसापूर्व छठी शती से पूर्ववर्ती है।
अध्याय ५ - पुरातत्त्व में दिगम्बर- परम्परा के प्रमाण
सिन्धुघाटी के उत्खनन में मोहेन-जो-दड़ो और हड़प्पा से ई० पू० २४०० वर्ष पहले की सभ्यता के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनमें हड़प्पा से एक मस्तकविहीन कायोत्सर्ग - ध्यानमुद्रा में नग्न मूर्ति भी उपलब्ध हुई है। पुरातत्त्वविदों का मत है कि वह जैन तीर्थंकर या दिगम्बरजैन साधु की प्रतिमा है। लोहानीपुर ( पटना, बिहार) में भी बिलकुल ऐसी ही मौर्यकालीन ( ई० पू० तृतीय शताब्दी की ) नग्न जिनप्रतिमा प्राप्त हुई है। दोनों प्रतिमाओं में आश्चर्यजनक साम्य है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि हड़प्पा से प्राप्त उक्त प्रतिमा जिनप्रतिमा ही है । ये प्राचीन नग्न जिनप्रतिमाएँ इस बात का सबूत हैं कि दिगम्बरजैन - न - परम्परा ईसापूर्व २४०० वर्ष तथा ईसापूर्व ३०० वर्ष से भी पुरानी है ।
श्वेताम्बर - परम्परा में नग्न जिनप्रतिमाओं का निर्माण कभी नहीं हुआ, क्यों श्वेताम्बर नग्नत्व को अश्लील एवं लोकमर्यादा के विरुद्ध मानते हैं। इसलिए उन्होंने यह कल्पना की है कि तीर्थंकरों का नग्न शरीर दिव्य शुभप्रभा - मण्डल से ढँक जाता है, फलस्वरूप वे नग्न दिखाई नहीं देते। श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनपरीक्षा के अनुसार गिरनारतीर्थ के स्वामित्व को लेकर हुए विवाद (संभवत: छठी शती ई०) के पूर्व तक जिनप्रतिमाएँ भी ऐसी ही बनायी जाती थीं, जिनमें जिनेन्द्र न तो सवस्त्र दिखाई देते थे, न नग्न । अर्थात् प्रतिमाओं में गुह्यांगों वाला भाग सपाट रखा जाता था। जिन तीर्थंकर - प्रतिमाओं में गुह्यांग दिखाई देते हों, वे श्वेताम्बर - मतानुसार जिनसदृश न होने से जिनबिम्ब नहीं कहला सकती थीं, फलस्वरूप वे उनके लिए पूज्य नहीं हो सकती थीं। इस कारण जब ईसापूर्व द्वितीय - तृतीय शती में श्वेताम्बरमतानुयायी सम्राट् सम्प्रति ने सर्वप्रथम श्वेताम्बर जिन - प्रतिमाओं और मन्दिरों का सम्पूर्ण भारत में निर्माण कराया, तब अनग्न और निर्वस्त्र जिनप्रतिमाएँ ही बनवायीं । (अ. ५ / प्र.१ / शी. १, २, ३) । यद्यपि डॉ० यू० पी० शाह एवं स्थानकवासी - सम्प्रदाय के श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी का कथन है कि ऐसी एक भी जिनप्रतिमा आज तक किसी मन्दिर में या उत्खनन में उपलब्ध नहीं हुई। इस तथ्य के आधार पर आचार्य श्री हस्तीमल जी ने अपना यह मन्तव्य व्यक्त किया
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