SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 776
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ७ / प्र० ४ 'परिचत्तेसु वत्थेसु' गाथाओं का अर्थ - " वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करता । भिक्षु अचेल होकर सदा जिनरूप धारण करता है। भिक्षु ऐसा विचार नहीं करता कि सवस्त्र सुखी होता है और वस्त्ररहित दुःखी, इसलिए मैं वस्त्र धारण करूँगा । " 'परिजुण्णेहिं वत्थेहिं' गाथाओं का अर्थ - " वस्त्र परिजीर्ण हो जाने पर मैं निर्वस्त्र हो जाऊँगा अथवा मैं सवस्त्र होऊँगा, भिक्षु को ऐसी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। भिक्षु कभी सवस्त्र हो जाता है, तो कभी निर्वस्त्र | धर्म के इस मर्म को समझकर ज्ञानी को दुःखी नहीं होना चाहिए। " इन दोनों अर्थों में आकाश-पाताल का अन्तर है। पूर्व गाथाओं में वस्त्रत्याग देने पर सदा निर्वस्त्र रहने पर जोर दिया गया है, जबकि उत्तरगाथाओं में सदा निर्वस्त्र रहने पर बल नहीं दिया गया, अपितु जब तक नये वस्त्र प्राप्त न हों, तब तक निर्वस्त्र रहने में दुःख न करने पर जोर दिया गया है। अर्थात् उत्तरगाथाओं में निर्वस्त्रता मोक्ष की दृष्टि से आवश्यक नहीं मानी गई है, जब कि पूर्व गाथाओं में मोक्ष की दृष्टि से आवश्यक मानी गयी है । इस तरह पूर्वनिर्दिष्ट और उत्तरनिर्दिष्ट गाथायुग्मों में शब्द और अर्थ, दोनों दृष्टियों से साम्य नहीं है। अतः डॉक्टर सा० का यह कथन समीचीन नहीं है कि पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने वर्तमान उत्तराध्ययन में जिन गाथाओं का अभाव बतलाया है, वे 'परिजुण्णेहिं वत्थेहिं' आदि गाथाओं के रूप में उत्तराध्ययन में विद्यमान हैं। तथ्य यह है कि निरपवाद अचेलत्व की पोषक होने से उन्हें वर्तमान उत्तराध्ययन से बहिष्कृत कर दिया गया। अतः सिद्ध है कि यापनीयमान्य - श्वेताम्बर - आगम वर्तमान- श्वेताम्बर - आगमों से पाठ की दृष्टि से कुछ भिन्न थे । पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यापनीयों के पास माथुरीवाचना के आगम होने का अनुमान लगाया है। इस पर भी डॉक्टर सा० ने आपत्ति दर्ज की है। उनका कहना है कि “यापनीयों के पास स्कन्दिल (श्वेताम्बराचार्य) की माथुरीवाचना के आगम थे, यह मानने में एक बाधा आती है, वह यह कि स्कन्दिल की वाचना का काल वीर नि० संवत् ८२७ -८४० अर्थात् ईसा की तृतीय शती का अन्त और चतुर्थ शती का प्रारम्भ है, जब कि संघभेद उसके लगभग २०० वर्ष पहले ही घटित हो चुका था । अतः प्रो० ढाकी की यह मान्यता उचित ही है कि वह वाचना फल्गुमित्र की रही होगी। यापनीयों ने उसमें अपने मन्तव्यों के अनुसार कुछ प्रक्षेप भी किया होगा । यद्यपि फल्गुमित्र की परम्परा की इस वाचना के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश कहीं भी उपलब्ध नहीं है ।" (जै. ध. या. स. / पृ. ७५) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy