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अ०७/प्र०४
यापनीयसंघ का इतिहास / ५७९ "उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में शब्दशः नहीं है, किन्तु उसका अर्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में सुरक्षित है।" इसलिए पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने जो कहा है वह सत्य सिद्ध होता है, अर्थात् यापनीयमान्य-श्वेताम्बर-आगम वर्तमान श्वेताम्बर-आगमों से पाठ की अपेक्षा किंचित् भिन्न थे।
___पण्डित जी ने पूर्वोक्त 'परिचत्तेसु वत्थेसु' आदि दो गाथाओं को उत्तराध्ययन की गाथाएँ कहा है। इस पर भी डॉक्टर सा० ने आक्षेप किया है कि "आदरणीय पण्डित जी को यह भ्रान्ति कैसे हो गयी कि वे उत्तराध्ययन की गाथाएँ हैं?" (जै. ध. या. स./पृ.७३)। वस्तुतः विजयोदयाटीका में उन्हें परीषहसूत्र कहा गया है१६१ और पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उनका अस्तित्व 'उत्तराध्ययन' में बतलाया है तथा उत्तराध्ययन की गाथाओं के रूप में ही उन्हें पादटिप्पणी में उद्धृत किया है।६२ अतः पण्डित कैलाशचन्द्र जी का उन्हें 'उत्तराध्ययन' की गाथाएँ कहना कोई भ्रान्ति नहीं है, अपितु यथार्थ है। आश्चर्य तो यह है कि आगे डॉक्टर सा० स्वयं भावरूप में उनका अस्तित्व उत्तराध्ययन में बतलाते हैं। वे लिखते हैं
"पुनः ये गाथाएँ भी चाहे शब्दशः उत्तराध्ययन में न हों, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएँ और शब्दरूप से इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही हैं। उपर्युक्त उद्धृत गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएँ प्रस्तुत हैं
परिजुण्णेहिं वत्थेहिं होक्खामि त्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्खं इदं भिक्खु न चिन्तए॥ २/१२॥ एगया अचेलए होइ सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए॥ २/१३॥"
(जै.ध.या.स./ पृ.७३) इन गाथाओं का पूर्वोक्त गाथाओं से न तो शब्दसाम्य है, न व्याकरणसाम्य, न अर्थसाम्य। शब्दसाम्य और व्याकरणसाम्य का अभाव तो स्पष्ट ही दृष्टिगोचर हो रहा है। अर्थसाम्य का अभाव नीचे प्रदर्शित किया जा रहा है। १६१. "इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमशकतृणस्पर्शपरीषहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु । न हि सचेलं
शीतादयो बाधन्ते। इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति–'परिचत्तेसु वत्थेसु ण पुणो
चेलमादिए---।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / 'आचेलक्कुद्देसिय' गा. ४२३ । १६२. "इसके बाद कहा है कि परीषह-सूत्रों में (उत्तराध्ययन में) जो शीत-दंशमशक-तृणस्पर्श
परीषहों के सहन के वचन हैं, वे सब अचेलता के साधक हैं। क्योंकि जो सचेल या सवस्त्र हैं उन्हें शीतादि की बाधा होती ही नहीं है।" जै. सा. इ./ प्र. सं./ पृ.५०।
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