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अ०७/प्र०४
यापनीयसंघ का इतिहास /५८१ यापनीयों के पास माथुरीवाचना. के आगमों का सद्भाव मानने में डॉक्टर सा० को जो बाधा दिखाई देती है, उसका कारण उनकी यह मान्यता है कि बोटिक यापनीय थे। बोटिकों को यापनीय मान लेने पर यह सिद्ध होता है कि यापनीयसम्प्रदाय का उदय प्रथम शताब्दी ईसवी में हुआ था। फलस्वरूप उनकी उत्पत्ति के २०० वर्ष बाद हुई माथुरीवाचना के आगम उनके पास माने जायँ, तो उसके पहले तक उनके पास आगमों का अभाव मानना होगा। किन्तु डॉक्टर सा० की बोटिकों को यापनीय मानने की परिकल्पना निराधार सिद्ध हो चुकी है और उन्होंने ही अपनी वाणी से स्वीकार कर लिया है कि यापनीय-सम्प्रदाय की उत्पत्ति पाँचवी शताब्दी ईसवी के प्रारम्भ में हुई थी। (देखिये, पूर्व प्रकरण १/शी. १०)। अतः अपनी उत्पत्ति से सौ वर्ष पूर्व हुई माथुरीवाचना के आगम यापनीयों के पास थे, यह मानने में कोई बाधा नहीं है। इससे प्रो० ढाकी की यह परिकल्पना भी निराधार सिद्ध हो जाती है कि यापनीयों के पास फल्गुमित्र की वाचना के आगम रहे होंगे। आश्चर्य तो यह है कि डॉक्टर सा० ने यह जानते हुए भी कि फल्गुमित्र की वाचना का आगम में कहीं कोई उल्लेख नहीं हैं, प्रो० ढाकी की इस निराधार परिकल्पना को उचित मान लिया है। यापनीयों के लिए अन्त तक मथुरावाचना के ही आगम मान्य रहे हैं, इसका एक ज्वलन्त प्रमाण यह है कि यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में मथुरागम को ही प्रमाणरूप में उद्धृत किया है।६३
यापनीय-मान्य आगमों की भाषा शौरसेनी यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि 'भगवती आराधना' की विजयोदयाटीका में माथुरीय श्वेताम्बर-आगमों से जो उद्धरण दिये गये हैं, उनकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है। इससे प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर आगम मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध किये गये थे। पश्चात् पाँचवीं शती ई० की वलभीवाचना में उनका अर्धमागधीकरण कर दिया गया। किन्तु यह डॉ० सागरमल जी की मान्यता के विरुद्ध है, इसलिए उन्होंने यह उद्भावना की है कि आगम तो मूलतः अर्धमागधी प्राकृत में ही रचे गये थे, किन्तु यापनीयों ने उन्हें शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित कर दिया। वे लिखते हैं
__"विजयोदया के आचारांग आदि के सभी आगमिक सन्दर्भो को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूर्णतः शौरसेनी प्रभाव से युक्त हैं। मूलतः आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगम तो निश्चित ही अर्धमागधी में रहे हैं। यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती १६३. अष्टशतमेकसमये पुरुषाणामादिरागमः (माहुरागमे) सिद्धिः (सिद्धम्)।
स्त्रीणां न मनुष्ययोगे गौणार्थो मुख्यहानिर्वा ॥३४॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण।
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