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________________ ५७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०३ ४. "इसके अतिरिक्त केवलीभुक्ति, केवली को कितने परीषह होते हैं आदि कुछ तात्त्विक मान्यताओं को लेकर भी दोनों में मतभेद रहा होगा।" (जै. ध. या. स./ पृ.४६-४७) इन भिन्नताओं के प्रदर्शन द्वारा भी मान्य विद्वान् ने मूलसंघ और यापनीयसंघ को परस्पर स्वतन्त्र सिद्ध किया है। दिगम्बरसंघ के ही मूलसंघ होने का एक स्पष्ट प्रमाण श्वेताम्बराचार्य श्री गुणरत्नसूरि के समय (१४ वीं शती ई०) में स्त्रीमुक्ति-विरोधी दिगम्बरसंघ ही 'मूलसंघ' के नाम से प्रसिद्ध था, यह उनके निम्नलिखित वचनों से ज्ञात होता है-"दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च। ते चतुर्धा काष्ठासङ्घ-मूलसङ्घ-माथुरसङ्घ-गोप्यसङ्घभेदात्। काष्ठासङ्घ चमरीबालैः पिच्छिका, मूलसङ्के मायूरपिच्छैः पिच्छिका, माथुरसङ्के मूलतोऽपि पिच्छिका नादृता, गोप्या मायूरपिच्छिकाः। आद्यास्त्रयोऽपि सङ्घा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्तिं, केवलिनां भुक्तिं, सव्रतस्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते। गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्तिं, केवलिनां भुक्तिं च मन्यन्ते। गोप्या यापनीया इत्यप्युच्यन्ते।" (तर्करहस्यदीपिका-वृत्ति / षड्दर्शनसमुच्चय/अ.४/ पृ.१६१)। __ यहाँ मूलसंघ को काष्ठासंघ, माथुरसंघ और यापनीयसंघ से भिन्न मयूरपिच्छधारी, धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देनेवाला तथा स्त्रीमुक्ति आदि का विरोधी बतलाया गया है। इससे सिद्ध है कि गुणरत्नसूरि के समय में जो इतिहास था, उसके अनुसार दिगम्बरसंघ ही मूलसंघ के नाम से जाना जाता था। . डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने अपने पूर्वोद्धृत लेख "जैन सम्प्रदाय के यापनीयसंघ पर कुछ और प्रकाश" में लिखा है कि रायद्रुग-(जिला बेल्लारी)-विवरण में निसिदि के निर्माण का उल्लेख है, जिसमें आठ नाम लिखे हैं, उनमें से मूलसंघ के चन्द्रभूति तथा यापनीयसंघ के चन्द्रेन्द्र, बादय्य और तम्मण्ण के नाम स्वाभिप्रेत हैं। (देखिये, इसी अध्याय की पादटिप्पणी क्र. ३७) यहाँ मूलसंघ और यापनीयसंघ को भिन्न संघों के रूप में उल्लिखित किया गया है। इससे भी सिद्ध है कि यापनीयसंघ का नाम मूलसंघ नहीं था, अपितु दिगम्बरसंघ ही मूलसंघ के नाम से प्रसिद्ध था। ___ इन प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध है कि मूलसंघ दिगम्बरसंघ या निर्ग्रन्थसंघ का ही दूसरा नाम है। एकमात्र अचेललिंग से मुक्ति के सिद्धान्त का अनुयायी होने के कारण वह निर्ग्रन्थसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा उसके विभाजन से भिन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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