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________________ ५७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ७ / प्र० ३ कूर्चकानां' इस प्रकार बहुवचनात्मक या 'मूलसंघ - निर्ग्रन्थसंघयो:' ऐसा द्विवचनात्मक प्रयोग किसी अभिलेख में प्राप्त होता, तो माना जा सकता था कि मूलसंघ और निर्ग्रन्थसंघ अलग-अलग संघ हैं। किन्तु ऐसा प्रयोग नहीं मिलता, इससे सिद्ध है कि वे अलगअलग नहीं, अपितु अभिन्न ही हैं। २. “यापनीयों के दक्षिण में प्रवेश के पूर्व भद्रबाहु के पहले या उनके साथ जो निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग दक्षिण चला गया था, वह अपने आपको 'निर्ग्रन्थ' ही कहता होगा, क्योंकि उस समय तक संघभेद या गणभेद नहीं हुआ था । सम्भवतः जब यापनीय उत्तरभारत से दक्षिणभारत की ओर गये, तब वे अपने गण को मूलगण कहते रहे होंगे, क्योंकि यापनीयों (बोटिक) के विभाजन के समय उत्तरभारत में गणभेद हो चुका था । अतः यापनीयों ने भी अपने साथ गण का प्रयोग अवश्य किया होगा । उनके जिन प्राचीन गणों के उल्लेख हैं, उनमें पुन्नागवृक्षमूलगण, कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण और श्रीमूलमूलगण ये तीन नाम मिलते हैं और इन तीनों के साथ मूलगण का प्रयोग है। अतः यह स्वाभाविक है कि जब उत्तरभारत का निर्ग्रन्थसंघ सचेलता और अचलता के प्रश्न पर दो भागों में विभक्त हो गया, तो उत्तरभारत की उस अचेल शाखा ने, जिसे श्वेताम्बरों ने बोटिक और दिगम्बरों ने यापनीय कहा है, अपने को तीर्थंकर महावीर के मूल आचारमार्ग का अनुसरण करने के कारण 'मूलगण' कहा होगा । जब यह मूलगण दक्षिण में प्रविष्ट हुआ होगा, तो दक्षिण के निर्ग्रन्थसंघ ने इनकी सुविधावादी प्रवृत्तियों के कारण अथवा आपस में मिलते समय 'किं जवणिज्जं' (किं यापनीयं ? ) ऐसा पूछने पर या वन्दन करते समय 'जवणिज्जाये' शब्द का जोर से उच्चारण करने के कारण इन्हें 'यापनीय' (जावनीय) नाम दिया होगा। इन्हें बाहर से आया जानकर अपने संघ को मूलसंघ के नाम से अभिहित किया होगा । अतः सम्भावना यही है कि मूलगण और मूलसंघ अलग-अलग थे। 'मूलगण' यापनीय था और 'मूलसंघ' निर्ग्रन्थ था । निर्ग्रन्थसंघ मूलसंघ से भिन्न नहीं था, यह उन अचेल श्रमणों का वर्ग था, जो भद्रबाहु के पूर्व या भद्रबाहु के समय से दक्षिण भारत में विचरण कर रहे थे। अतः ई० सन् की पाँचवीं शती तक दक्षिण भारत में यापनीयों से भिन्न अचेल परम्परा के दो अन्य संघ भी थे एक निर्ग्रन्थसंघ (मूलसंघ ) और दूसरा कूर्चकसंघ" (जै. ध. या.स./पृ.४५) । इस प्रकार डॉ० सागरमल जी ने अपने चिन्तन के आधार पर मूलसंघ और निर्ग्रन्थसंघ को अभिन्न सिद्ध किया है। मान्य विद्वान् ने मूलसंघ और यापनीयसंघ में भिन्नताएँ भी बतलायी हैं, जो उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार हैं १. 'भद्रबाहु के पूर्व या उनके साथ जो मुनिसंघ दक्षिण की यात्रा पर गया था, वह यद्यपि अपने साथ महावीर का तत्त्वज्ञान और आचारमार्ग लेकर अवश्य गया Jain Education International 44 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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