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अ०७/प्र०३
यापनीयसंघ का इतिहास / ५६९
निर्ग्रन्थसंघ ही मूलसंघ : डॉ० सागरमल जी अब मैं एक अद्भुत और रोचक बात सामने ला रहा हूँ। डॉ० सागरमल जी ने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ में स्वयं ही निर्ग्रन्थसंघ को मूलसंघ सिद्ध किया है। किन्तु ग्रन्थ के 'लेखकीय' में लिखा है
"प्रस्तुत कृति के प्रणयन की दीर्घ कालावधि के दौरान अनेक नवीन तथ्यों एवं जानकारियों के उपलब्ध होने पर मेरी अवधारणाओं में भी कहीं-कहीं परिवर्तन हुआ है। उदाहरण के रूप में प्रारंभ में मैंने मूलसंघ को दिगम्बर मान लिया था, किन्तु बाद में मुझे जो साक्ष्य उपलब्ध हुए , उनके आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि वस्तुतः मूलसंघ के प्राचीन अभिलेखीय उल्लेख दिगम्बर नहीं, बल्कि यापनीय हैं। यापनीयग्रन्थों की मूलाचार, मूलाराधना (भगवती-आराधना) जैसी संज्ञाएँ हमारे उक्त निष्कर्ष का समर्थन करती हैं। पाँचवीं शती के लगभग जब इस सम्प्रदाय का यापनीय नामकरण हुआ, तब तक दिगम्बर-सम्प्रदाय तो 'निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय' नाम से ही जाना जाता था। चौथी-पाँचवीं शती के जिन दो अभिलेखों में 'मूलसंघ' शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ वे शब्द यापनीयों के ही सूचक हैं। पाठकों से मेरा अनुरोध है कि कृति में जहाँ कहीं ऐसे कुछ अन्तर्विरोध परिलक्षित हों, वहाँ परवर्ती उल्लेख को नवीन शोध का निष्कर्ष मानकर उसे ही मेरा मन्तव्य माना जाय।" (लेखकीय/ पृ.VI / जै. ध. या. स.)।
डॉक्टर सा० ने 'मूल' शब्द से मूलसंघ के साथ सम्बन्ध सूचित करनेवाले 'मूलाचार' और 'मूलाराधना' (भगवती-आराधना) नामक ग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ मानकर उन्हें मूलसंघ और यापनीयसंघ के अभिन्न होने का साक्ष्य माना है। किन्तु उक्त ग्रन्थ यापनीयग्रन्थ हैं ही नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ हैं। (इसके प्रमाण अध्याय १३ एवं १५ में द्रष्टव्य हैं)। अतः वे मूलसंघ और यापनीयसंघ के अभिन्न होने के नहीं, बल्कि दिगम्बरसंघ अर्थात् निर्ग्रन्थसंघ और मूलसंघ की अभिन्नता के साक्ष्य हैं। इसलिए डॉक्टर सा० ने अपने ग्रन्थ-प्रणयन की आरम्भिक अवस्था में निर्ग्रन्थसंघ और मूलसंघ में अभेद स्थापित करनेवाले जो हेतु बतलाये हैं, वे बाधित नहीं होते। वे मूलसंघ को निर्ग्रन्थसंघ सिद्ध करनेवाले अतिरिक्त हेतु हैं। अतः उन्हें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। वे इस प्रकार हैं
१. हल्सी के अभिलेख (क्र. ९९) में 'यापनीयनिर्ग्रन्थकूर्चकानां' ऐसा बहुवचनात्मक प्रयोग मिलता है, इससे सिद्ध होता है कि यापनीय, निम्रन्थ और कूर्चक ये तीन स्वतन्त्र सम्प्रदाय थे। (जै.ध.या.स./ पृ. ४४-४५)। इसी प्रकार यदि 'मूलसंघ-निर्ग्रन्थसंघ-यापनीय
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