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अ०७/प्र०३
यापनीयसंघ का इतिहास / ५६७ (पृ.४-१२) में प्रो० विद्याधर जोहरापुरकर ने भी काणूगण को मूलसंघ से ही सम्बद्ध बतलाया है। १५५
एक बात और ध्यान देने योग्य है। ८२१ ई० के सूरत ताम्रपत्र में मूलसंघ के अन्तर्गत सेनसंघ तथा सेनसंघ में मल्लवादिगुरु के शिष्य श्रीसुमतिपूज्यपाद तथा उनके शिष्य अपराजित का अस्तित्व बतलाया गया है। यथा
__ "मूलसंघोदयान्वय-सेनसंघ-मलवादिगुरोशिशष्य-श्रीसुमतिपूज्यपादः तच्छिष्य श्रीमदपराजितगुरोः ---।" १५६
__ १०५३ ई० के मुलगुन्द-(मैसूर)-शिलालेख में भी मूलसंघ में सेनान्वय और सेनान्वय में अजितसेन, कनकसेन, नरेन्द्रसेन और नयसेन के होने का उल्लेख किया गया है। १५७
___ सेनसंघ आचार्य अर्हद्वलि के द्वारा मूलसंघ का विभाजन किये जाने पर अस्तित्व में आया था। अतः मूलसंघ के साथ सेनसंघ का सम्बन्ध बतलाये जाने से निश्चित हो जाता है कि मूलसंघ निर्ग्रन्थसंघ का ही दूसरा नाम है। निष्कर्ष यह कि किसी भी अभिलेख में मूलसंघ के साथ यापनीयसंघ अथवा उसके किसी गण का उल्लेख नहीं हुआ है, जब कि निर्ग्रन्थसंघ के गणों का उल्लेख मूलसंघ के साथ अनेकत्र हुआ है। इससे सिद्ध है कि नोणमंगल की ३७० ई० एवं ४२५ ई० की ताम्रपट्टिकाओं में उल्लिखित मूलसंघ एवं उसके बाद ८२१ ई० के ताम्रपत्र तथा सभी उत्तरवर्ती अभिलेखों में उत्कीर्ण 'मूलसंघ' निर्ग्रन्थसंघ का ही पर्यायवाची है। ___अब मैं डॉक्टर सा० के ही उन वचनों को प्रस्तुत करता हूँ, जिनसे मूलसंघ को यापनीयसंघ सिद्ध करने के लिए उनके द्वारा उपस्थापित समस्त पूर्व हेतु निरस्त हो जाते हैं। वे लिखते हैं
"सत्य तो यह है कि जब कुन्दकुन्दान्वय ने मूलसंघ के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर अन्य संघों को जैनाभास और मिथ्यात्वी घोषित किया --- तो प्रतिक्रियास्वरूप दूसरों ने भी अपने को मूलसंघी कहना प्रारम्भ कर दिया। ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध में अचेल-परम्परा के यापनीय, द्रविड़ आदि अनेक संघ अपने साथ मूलसंघ का उल्लेख करने लगे थे, जब कि इन्द्रनन्दी ने इन सब को जैनाभास कहा है। इसका
१५६. जैन शिलालेख संग्रह / भा.ज्ञा./ भाग ४/ लेख क्र.५५ / पंक्ति ४५-४६ / ८२१ ई.। १५७. वही / ले.क्र.१३८ / पंक्ति २२-२३
श्रीमूलसंघवाराशौ मणीनामिव सार्चिषाम्। महापुरुषरत्नानां स्थानं सेनान्वयोऽजनि॥ २॥ उत्तरपुराणप्रशस्ति।
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