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________________ ५६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०३ ई० के रढवग्-लेख,१४१ १३ वीं शताब्दी ई० के कोल्हापुर के मंगलवार-पेठस्थित मन्दिर के लेख१४२ आदि अनेक अभिलेखों में यापनीय-पुन्नागवृक्षमूलगण उल्लेख है। ___ इस प्रकार यापनीयसंघ के पुन्नागवृक्षमूलगण के साथ सर्वत्र ‘यापनीय' शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे सिद्ध है कि मूलसंघ के पुन्नागवृक्षमूलगण के साथ 'यापनीय' शब्द का प्रयोग न होने से वह यापनीयसंघ का पुन्नागवृक्षमूलगण नहीं है, अपितु मूलसंघ का पुन्नागवृक्षमूलगण है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मूलसंघ और यापनीयसंघ अलग-अलग संघ थे। एक बात और ध्यान देने योग्य है। पुन्नागवृक्षमूलगण के साथ 'मूलसंघ' शब्द का प्रयोग सबसे पहले ११०८ ई० के होन्नूर-लेख में किया गया है। किन्तु उसके (पुन्नागवृक्ष-मूलगण के) साथ 'यापनीय' शब्द का प्रयोग उसके पूर्व (८१२ ई०) के कड़ब-दानपत्र में भी मिलता है और उसके बाद (१०२०, १०४४, ११६५ ई०) के अनेक दानपत्रों में भी। इससे सिद्ध होता है कि यापनीयसंघ 'यापनीय' नाम से ही अविच्छिन्नरूप से प्रसिद्ध रहा है। यदि सन् ११०८ ई० में उसका नाम मूलसंघ हो गया होता, तो उसके बाद से पुन्नागवृक्षमूलगण के साथ 'मूलसंघ' शब्द का ही प्रयोग मिलता, 'यापनीय' शब्द का नहीं। यह संभव नहीं है कि चौथी-पाँचवीं शताब्दी ई० से ८१२ ई० तक वह यापनीयसंघ नाम से प्रसिद्ध रहा हो, फिर बीच में अचानक पचास वर्षों के लिए उसका मूलसंघ नाम चल पड़ा हो, पश्चात् उसने पुनः ‘यापनीय' म धारण कर लिया हो। यह बार-बार अकारण नाम बदलने की कल्पना युक्तिसंगत नहीं है। इसलिए यही सिद्ध होता है कि मूलसंघ और यापनीयसंघ अलग-अलग संघ थे और पुन्नागवृक्षमूलगण मूलसंघ में भी था और यापनीय संघ में भी। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने भी यह स्वीकार किया है। वे लिखते हैं "यापनीयसंघ का गणों से विशेष सम्बन्ध था, जैसे कुमुलिगण या कुमुदिगण, (कोटि) मडुवगण, कण्डूर् या क्राणूगण, पुन्नागवृक्षमूलगण (जो मूलसंघ से भी संबंधित है)--- आदि आदि"।१४३ डॉ० गुलाबचन्द्र जी चौधरी ने 'जैन शिलालेखसंग्रह'(मा.च.)भाग ३ की प्रस्तावना (पृ.२९) में लिखा है कि "यापनीय-नन्दिसंघ के कनकोपलादि गणों का अस्तित्व बाद के लेखों से नहीं मालूम होता, इसलिए यह कहना कठिन है कि उनका क्या १४१. डॉ. ए. एन. उपाध्ये : 'जैनसम्प्रदाय के यापनीयसंघ पर कुछ और प्रकाश'/ 'अनेकान्त'। महावीर निर्वाण विशेषांक / १९७५ ई०/ पृ.२४७ । १४२. वही । पृ.२५०। १४३. वही । पृ.२५०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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