SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 759
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०७/प्र०३ यापनीयसंघ का इतिहास / ५६३ से यही सिद्ध होता है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति दक्षिण भारत में ही हुई थी और वह आरंभ से ही 'यापनीय' नाम से प्रसिद्ध हुआ था। ६. यापनीयसम्प्रदाय के उत्पत्तिकाल के विषय में अपने पूर्वोक्त मत को बदलकर उक्त विद्वान् ने अपने ग्रन्थ में एक नहीं, अनेक स्थानों पर लिखा है कि यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति पाँचवीं शताब्दी ई० में हुई थी, क्योंकि इसी समय के शिलालेखों में प्रथम वार उसका नाम मिलता है। (जै.ध.या.स./पृ.३५०, ३५७, ३६८, ३७२, ३७३)। मैं भी इससे सहमत हूँ। शिलालेखों में नाम आने योग्य प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए कम से कम ५० वर्ष का समय तो आवश्यक माना ही जाना चाहिए। इसके अनुसार यापनीयसंघ का जन्म शिलालेख के समय ४७० ई० से ५० वर्ष पूर्व अर्थात् ४२० ई० में माना जाना चाहिए। किन्तु मूलसंघ का उल्लेख करनेवाली नोणमंगल की ताम्रपट्टिकाओं का समय ३७० ई० तथा ४२५ ई० है। इस कालगत पूर्वापरता से स्पष्ट है कि इन ताम्रपट्टिकाओं में उल्लिखित मूलसंघ यापनीयसंघ नहीं हो सकता। अतः वह एकान्त-अचेलमुक्तिवादी निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) संघ का ही नामान्तर है। ७. शिलालेखों में 'श्रीमूलसंघद पो (पु) न्नागवृक्षमूलगण' तथा 'श्रीमूलसंघान्वयक्राणूगण' इन उल्लेखों को देखकर डॉ० सागरमल जी ने माना है कि ये गण यापनीयों के हैं तथा मूलसंघ के साथ उनका उल्लेख हुआ है, इससे सिद्ध है कि मूलसंघ यापनीयसंघ का ही नाम था।३६ किन्तु यह उनकी एकान्तदृष्टि का निष्कर्ष है। वस्तुतः पुन्नागवृक्षमूलगण यापनीयसंघ और मूलसंघ दोनों में था। इसी प्रकार नन्दिसंघ भी दोनों में था। इनमें भेद प्रदर्शित करने के लिए यापनीयसंघ के पुन्नागवृक्षमूलगण एवं नन्दिसंघ के साथ 'यापनीय' शब्द का प्रयोग किया गया है तथा मूलसंघ के पुन्नागवृक्षमूलगण एवं नन्दिसंघ के साथ 'मूलसंघ' का। यथा क-'श्रीमूलसंघद पो (पु) नागवृक्षमूलगणद।' (होन्नूरलेख / ११०८ ई०)।१३७ ख–श्रीयापनीय-नन्दिसंघ-पुन्नागवृक्षमूलगणे--।' (कडब-दानपात्र/ ८१२ ई०)।१३८ ग–'श्रीयापनीयसंघद पुन्नागवृक्षमूलगणद ---।' (हूलि-लेख/१०४४ ई०)।१३९ इनके अतिरिक्त ११६५ ई० के एकसम्बि (बेलगाँव, मैसूर) लेख,१४० १०२० १३६. डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ / पृष्ठ ६३२। १३७. जैन शिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र / भाग २ / लेख क्रमांक २५०।। १३८. वही / लेख क्रमांक १२४। । १३९. जैन शिलालेखसंग्रह । भारतीय ज्ञानपीठ / भाग ४ / लेख क्रमांक १३० । १४०. वही / लेख क्रमांक २५९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy