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५६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०३ किया जा सके कि दक्षिण के जिन शिलालेखों में 'मूलसंघ' नाम आया है वह यापनीयसंघ
का ही पूर्वनाम है। किन्तु यापनीयसंघ का मूलसंघ नाम दक्षिण में जाने पर प्रचलित हुआ, इसका समर्थन किसी साहित्यिक या शिलालेखीय प्रमाण से नहीं होता। अतः यह शुद्ध कपोलकल्पना है।
दूसरी बात, डॉक्टर सा० ने माना है कि दक्षिण में यापनीय संघ के 'मूलसंघ' नाम से प्रसिद्ध होने के सौ वर्ष बाद उसे 'यापनीय' नाम मिला। डॉक्टर सा० ने 'बोटिक' नाम से यापनीय-सम्प्रदाय की उत्पत्ति वीर नि० सं० ६०९ (ई० सन् ८२)में मानी है। और मूलसंघ का प्रथम उल्लेख नोणमंगल की ३७० ई० की ताम्रपट्टिका में तथा यापनीयसंघ का प्रथम उल्लेख ४७० ई० के मृगेशवर्मा के शिलालेख में मिलता है। यदि 'मूलसंघ' नाम से प्रसिद्ध होने के लिए पचास वर्ष का समय आवश्यक मान लिया जाय, तो यापनीयसंघ के दक्षिण में पहुँचने का समय ३२० ई० के लगभग फलित होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि कम से कम दो ढाई सौ वर्ष तक यह संघ उत्तर भारत में रहा। इतने समय तक वह वहाँ किस नाम से प्रसिद्ध रहा, इसके बारे में डॉक्टर सा० ने केवल संभावना व्यक्त की है। वे कहते हैं कि उत्तरभारत में उसने अपने को तीर्थंकर महावीर के मूल आचारमार्ग का अनुसरण करने के कारण 'मूलगण' कहा होगा।१३४ संभावना व्यक्त करने से ही सिद्ध है कि उनके पास इसका कोई प्रमाण नहीं है, वस्तुतः 'मूलगण' नाम के किसी सम्प्रदाय का उल्लेख न तो श्वेताम्बर-साहित्य में हैं, न दिगम्बरसाहित्य में, न यापनीयसाहित्य में, न वैदिक-बौद्धसाहित्य में और न किसी शिलालेख में, इसलिए किसी प्रमाण के मिलने की संभावना ही नहीं है। 'मूलगण' यापनीयसम्प्रदाय के एक 'गण' का नाम अवश्य था, किन्तु उसका सर्वप्रथम उल्लेख यापनीय-नन्दिसंघ के साथ ७७६ ई० के देवरहल्लि-अभिलेख में हुआ है तथा यापनीय-नन्दिसंघ का नाम भी सबसे पहले इसी शिलालेख में आया है।३५ अतः ३२० ई० के पूर्व यापनीयसंघ के 'मूलगण' नाम से प्रसिद्ध होने का प्रमाण न तो साहित्य में उपलब्ध है, न शिलालेखों में।
यह इस बात का सबूत है कि उत्तरभारत में यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी, अन्यथा उत्तरभारत में उसका कोई न कोई नाम लोकप्रसिद्ध होता। इसलिए यह कथन ही असंगत है कि "दक्षिण में पहुँचने पर यापनीयसंघ पहले 'मूलसंघ' नाम से प्रसिद्ध हुआ और उसके सौ वर्ष बाद 'यापनीयसंघ' नाम से।" उपर्युक्त प्रमाण
१३४. जै. ध. या. स./ पृ.४५ तथा डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ / पृ.६३२।। १३५. "श्रीमूल-मूलगणाभिनन्दितनन्दिसङ्घान्वये एरेगित्तूर्नाम्नि गणे पुलिकल्गच्छे ---।" ले.
क्र. १२१/ जै. शि. सं. / मा.च. / भा.२।
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