SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 757
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० ७ / प्र० ३ यापनीयसंघ का इतिहास / ५६१ सुविधावादी जीवन के आधार पर अथवा उन्हें तिरस्कृत मानकर 'यापनीय' कहा हो।" (जै. ध. या. सं./पृ. ७) । तत्पश्चात् अपने कथन का उपसंहार करते हुए डॉक्टर सा० लिखते हैं " इस प्रकार हमने यहाँ यापनीय शब्द की सम्भावित विभिन्न व्याख्याओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। किन्तु आज स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में यह बता पाना तो कठिन है कि इन विविध विकल्पों में किस आधार पर इस वर्ग को यापनीय कहा गया था। फिर भी कल्याणविजय जी की मान्यता युक्तिसंगत है।" (जै. ध. या. सं./ पृ. ७) । इस प्रकार डॉक्टर सा० ने स्वयं स्वीकार किया है कि श्वेताम्बरों द्वारा 'बोटिक' और दिगम्बरों द्वारा 'यापनीय' नाम दिये जाने के पक्ष में प्रमाण का अभाव है और उन्होंने मुनि कल्याणविजय जी के मत को युक्तिसंगत माना है। इससे सिद्ध है कि यापनीयों ने अपने संघ का 'यापनीयसंघ' नाम स्वयं रखा था । अतः 'बोटिक' और 'यापनीय' नाम दूसरों के द्वारा दिये हुए हैं और 'मूलगण' नाम स्वयं यापनीयों के द्वारा रखा गया है, यह कथन अयुक्तियुक्त सिद्ध हो जाता है। तथा यापनीयों ने आरंभ में अपना नाम मूलगण रखा था, यह कथन किसी साहित्यिक या शिलालेखीय प्रमाण से भी समर्थित नहीं है। इसके अतिरिक्त गण तो संघ का अंग होता है, अतः यापनीयों ने अपने संघ को 'गण' कहा होगा, यह मानना भी युक्तिसंगत नहीं है । पुनः उसके साथ 'मूल' शब्द लगाने का भी कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि उससे किसी अन्य संघ या गण की उत्पत्ति नहीं हुई थी, जिससे अपनी मौलिकता सूचित करने के लिए उसे अपने साथ 'मूल' शब्द जोड़ना आवश्यक होता। ये युक्तियाँ इस निष्कर्ष पर पहुँचाती हैं कि यापनीयों ने अपने संघ का नाम मूलगण नहीं, अपितु 'यापनीय' ही रखा था । ५. मुनि कल्याणविजय जी ने लिखा है कि शिवभूति ने अपने सम्प्रदाय का नाम मूलसंघ रखा था, किन्तु दक्षिण में जाने पर वह यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुआ । (श्र.भ.म. / पृ. ३०१, ३२७)। मुनि जी की इस कल्पना से यही सिद्ध होता है कि जब यापनीयसंघ दक्षिण में 'यापनीय' नाम से ही जाना जाता था, तब दक्षिण के शिलालेखों में उसका उल्लेख 'यापनीय' नाम से ही हो सकता था, 'मूलसंघ' नाम से नहीं । अतः दक्षिण के जिन शिलालेखों में केवल 'मूलसंघ' नाम उल्लिखित है, वह एकान्तअचेलमुक्तिवादी निर्ग्रन्थसंघ का ही उल्लेख है। डॉ० सागरमल जी ने जो यह कल्पना की है कि यापनीयसंघ का 'मूलसंघ' नाम भी दक्षिण में जाने पर ही प्रचलित हुआ, वह इसलिए की है, जिससे यह सिद्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy