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________________ ५६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०३ युक्तिसंगत है। एक ही संघ के दो नामों का होना असंभव नहीं है। यापनीयसंघ का भी अन्य नाम गोप्यसंघ था। ४. सचेलाचेल-मुक्तिवादी जैनसंघ को 'यापनीय' नाम दिगम्बरों (दक्षिणभारत की निर्ग्रन्थ अचेलधारा) ने दिया था, इसका उल्लेख दिगम्बर, श्वेताम्बर, वैदिक और बौद्ध किसी भी सम्प्रदाय के साहित्य में नहीं है, न किसी शिलालेख में है। अतः इसे दिगम्बरों के द्वारा दिया गया कहना कपोलकल्पना मात्र है। कोई भी धार्मिक सम्प्रदाय अपने नाम के लिए दूसरों का मोहताज नहीं होता। वह स्वयं ही अपने सम्प्रदाय की सैद्धान्तिक विशिष्टता प्रकट करने के लिए गहन चिन्तन-मनन के बाद अत्यन्त उपयुक्त नाम चुनता है। दूसरे लोग ईर्ष्या या द्वेषवश उसे किसी भी नाम से पुकारें, पर वह अपनी पहचान अपने ही द्वारा निर्धारित किये गये नाम से कराता है। 'यापनीयसंघ' नाम राजकीय शिलालेखों या ताम्रपत्रों में मिलता है, और पाल्यकीर्ति शाकटायन जैसे वैयाकरण ने अपने लिए यापनीय-यतिग्रामाग्रणी विशेषण का प्रयोग कर अपना महत्त्व प्रकट किया है, इससे स्पष्ट है कि यापनीयों ने यह नाम अपने लिए बहुत सोचसमझकर चुना था और इस नाम से ही अपने संघ को प्रसिद्ध किया था। अतः इसे दिगम्बरों द्वारा दिया गया मानना सर्वथा असंगत प्रलाप है। यापनीय नाम प्रचलित होने के विषय में डॉ० सागरमल जी ने मुनि कल्याणविजय जी का पट्टावलीसारसंग्रह (पृ.९१) में व्यक्त निम्नलिखित मत उद्धृत किया है-"यापनीय नाम पड़ने का खास कारण उनके गुरुवन्दन में आनेवाला जावणिज्जाए शब्द है। निर्ग्रन्थ श्रमण अपने बड़ेरों (ज्येष्ठ) को वन्दन करते समय निम्नलिखित पाठ बोलते हैं "इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहआए, अणुजाणह मे मि उग्गहं निसीहि।" "अर्थात् मैं चाहता हूँ , हे पूज्य! वन्दन करने को शरीर की शक्ति के अनुसार। इस समय मैं दूसरे कार्यों की तरफ से ध्यान रोकता हूँ, मुझे आज्ञा दीजिये, परिमित स्थान में आने की। "उपर्युक्त वन्दनकसूत्र में आनेवाले जावणिज्जाए–'यापनीय' शब्द के बारम्बार उच्चारण करने के कारण लोगों में उनकी यापनीय नाम से प्रख्याति हो गई।" (जै.ध.या.सं.! पृ.५-६)। इसके बाद डॉक्टर सा० ने अन्य विचारकों के मतों को भी उद्धृत किया है। तदनन्तर वे अपने मत को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-"संभवतः जिस प्रकार उत्तरभारत में श्वेताम्बरों ने इस परम्परा को अपने साम्प्रदायिक दुरभिनिवेशवश 'बोटिक' अर्थात् भ्रष्ट या पतित कहा, उसी प्रकार दक्षिण में दिगम्बर-परम्परा ने भी उन्हें उनके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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