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________________ अ०७/प्र०३ यापनीयसंघ का इतिहास / ५५९ (मूलसंघ या एकान्त-अचेलमुक्तिवादी निर्ग्रन्थसंघ) का अनुयायी बन गया था। इसलिए जब उसने किसी नये मत का प्रवर्तन ही नहीं किया था, तब उसके 'मूलसंघ' या 'यापनीयसंघ' के नाम से प्रसिद्ध होने की बात करना बन्ध्यापुत्र के नाम पर विवाद करना है। ___ यापनीयसंघ का उदय दक्षिण में ही हुआ था, यह पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है। अतः उसके उत्तर से दक्षिण में जाने की अवधारणा निरस्त हो जाती है। अतः यह अवधारणा भी निरस्त हो जाती है कि दक्षिण में जाने पर वह क्रमशः मूलसंघ और यापनीयसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पाँचवीं शती ई० के अभिलेखों में यापनीयसंघ नाम ही मिलता है। इससे सिद्ध है कि इस समय तक वह इसी नाम से प्रसिद्ध था। २. डॉ० सागरमल जी ने स्वीकार किया है कि "अपने को मूलसंघ कहने की आवश्यकता उसी परम्परा को हो सकती है, जिसमें कोई विभाजन हुआ हो।" (देखिये, पूर्वशीर्षक २) हम देखते हैं कि यापनीयसंघ में कोई विभाजन नहीं हुआ, अतः उससे किसी नये संघ की उत्पत्ति नहीं हुई, इसलिए उसे स्वयं को मूलसंघ कहने की आवश्यकता ही नहीं थी। यापनीयसंघ का उद्भव श्वेताम्बर-सम्प्रदाय से हुआ था, अतः यापनीयसंघ की दृष्टि से श्वेताम्बरसंघ मूलसंघ कहला सकता था। किन्तु डॉक्टर सा० की मान्यता है कि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों संघ उत्तरभारतीय सचेलाचेलमुक्तिवादी निर्ग्रन्थसंघ से निकले हैं, अतः उनके अनुसार श्वेताम्बरसंघ भी मूलसंघ नहीं कहला सकता। हाँ दोनों को जन्म देने वाला उपर्युक्त सचेलाचेल निर्ग्रन्थसंघ मूलसंघ कहला सकता था, किन्तु वैसा कोई संघ था ही नहीं, यह द्वितीय अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। इस प्रकार सिद्ध है कि आरम्भ में न तो यापनीयसंघ मूलसंघ कहलाता था, न श्वेताम्बरसंघ, न ही दोनों का तथाकथित जन्मदाता कपोलकल्पित सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ। ३. 'दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास' नामक अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत एकान्त-अचेलमुक्तिवादी-निर्ग्रन्थसंघ का विभाजन अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बू स्वामी के निर्वाण के पश्चात् ही हो गया था, जिससे एकान्त-सचेलमार्गी नये संघ की उत्पत्ति हुई, जो 'श्वेतपटश्रमणसंघ' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस नये संघ की उत्पत्ति से पुराने संघ को मूलसंघ कहने की आवश्यकता हो गई। जब ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय श्रुतकेवली भद्रबाहु अपने बारह हजार शिष्यों के साथ दक्षिण भारत गये, तब उनके निर्ग्रन्थश्रमणसंघ के साथ मूलसंघ विशेषण जुड़ चुका था। अतः दक्षिण भारत के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में उनके संघ के लिए निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ और मूलसंघ दोनों नामों का प्रयोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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