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५५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०३ का सम्बन्ध इसी उत्तर भारत की अचेलधारा से है, जो आगे चलकर यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुई। दक्षिण में पहुँचने पर यह धारा अपने को मूलगण या मूलसंघ कहने लगी। यह आगे चलकर श्रीवृक्षमूलगण, पुन्नागवृक्षमूलगण, कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण आदि अनेक गणों में विभक्त हुई, फिर भी सबने अपने साथ मूलगण शब्द कायम रखा। जब इन विभिन्न मूलगणों को कोई एक संयुक्त नाम देने का प्रश्न आया, तो उन्हें मूलसंघ कहा गया। कई गणों द्वारा परवर्तीकाल में संघ नाम धारण करने के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। पुनः यापनीय ग्रन्थों के साथ लगा हुआ 'मूल' विशेषण जैसे मूलाचार, मूलाराधना आदि भी इसी तथ्य का सूचक है कि 'मूलसंघ' शब्द का सम्बन्ध यापनीयों से रहा है। अतः नोणमंगल की ताम्रपट्टिकाओं में उल्लिखित मूलसंघ यापनीयपरम्परा का ही पूर्वरूप है। उत्तर भारत के निर्ग्रन्थसंघ की यह धारा जब पहले दक्षिण भारत में पहुंची तो मूलसंघ के नाम से अभिहित हुई और उसके लगभग १०० वर्ष पश्चात् इसे यापनीय नाम मिला। हम यह भी देखते हैं कि उसे यापनीय नाम मिलते ही अभिलेखों से मूलसंघ नाम लुप्त हो जाता है और लगभग चार सौ पचास वर्षों तक हमें मूलसंघ का कहीं कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। नोणमंगल की ई० सन् ४२५ की ताम्र-पट्टिकाओं के पश्चात् कोन्नूर के ई० सन् ८६० के अभिलेख में पुनः मूलसंघ का उल्लेख देशीयगण के साथ मिलता है। ज्ञातव्य है कि इस अभिलेख में मूलसंघ के साथ देशीयगण और पुस्तकगच्छ का उल्लेख है, किन्तु कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख नहीं है। ज्ञातव्य है कि पहले यह लेख ताम्रपट्टिका पर था, बाद में १२ वीं शती में इसमें कुछ अंश जोड़कर पत्थर पर अंकित करवाया गया, इस जुड़े हुए अंश में ही कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख है। इसके दो सौ वर्ष पश्चात् से यापनीयगण और द्राविड़ आदि अन्य गण सभी अपने को मूलसंघीय कहते प्रतीत होते हैं।" (डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ / पृ० ६३२-६३३)।
यापनीयसंघ मूलसंघ नहीं : इसके प्रमाण १. उक्त दोनों महानुभावों ने ऐसा एक भी साहित्यिक या शिलालेखीय प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया, जिससे यह सिद्ध होता हो कि शिवभूति ने सचेलाचेल-मुक्तिवादी सम्प्रदाय चलाया था और उसी का नाम पहले 'मूलसंघ' था और बाद में यापनीय नाम पड़ा। यह बात उन्होंने अपने मन से ही कल्पित कर ली है।
___ द्वितीय अध्याय में अनेक प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध किया गया है कि बोटिक शिवभूति ने किसी नये मत का प्रवर्तन नहीं किया था, अपितु वह श्वेताम्बरमत छोड़कर सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति एवं केवलिभुक्ति के विरोधी परम्परागत दिगम्बरमत
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