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यापनीयसंघ का इतिहास / ५५७
अ० ७ / प्र० ३
की परम्परा के उन अचेल श्रमणों का संघ था जो ईसापूर्व तीसरी शती में बिहार से उड़ीसा के रास्ते लंका और तमिलप्रदेश में पहुँचे थे। उस समय उत्तर भारत में जैनसंघ इसी नाम से जाना जाता था और उसमें गण, शाखा का विभाजन नहीं हुआ था, अतः ये श्रमण भी अपने को इसी 'निर्ग्रन्थ' नाम से अभिहित करते रहे । पुनः उन्हें अपने को मूलसंघी कहने की कोई आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि वहाँ तब उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं था । यह निर्ग्रन्थसंघ यापनीय, कूर्चक और श्वेतपट संघ से पृथक् था, यह तथ्य भी हल्सी और देवगिरि के अभिलेखों से सिद्ध है, क्योंकि इनमें उसे इनसे पृथक् दिखलाया गया है और तब तक इसका निर्ग्रन्थसंघ नाम सुप्रचलित था । पुनः जब लगभग १०० वर्ष के पश्चात् के अभिलेखों में भी यह निर्ग्रन्थसंघ के नाम से ही सुप्रसिद्ध है, तो पूर्व में यह अपने को 'मूलसंघ' कहता होगा, यह कल्पना निराधार है।
"अपने को मूलसंघ कहने की आवश्यकता उसी परम्परा को हो सकती है, जिसमें कोई विभाजन हुआ हो, जो दूसरे को निर्मूल या निराधार बताना चाहती हो, यह बात पं० नाथूराम जी प्रेमी ने भी स्वीकार की है। यह विभाजन की घटना उत्तर भारत में तब घटित हुई, जब लगभग ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत का निर्ग्रन्थसंघ अचेल और सचेल धारा में विभक्त हुआ। साथ ही उसकी अचेल धारा को अपने लिये एक नये नाम की आवश्यकता प्रतीत हुई। उस समय तक उत्तर भारत का निर्ग्रन्थसंघ अनेक गणों, शाखाओं और कुलों में विभक्त था, यह तथ्य मथुरा के अनेक अभिलेखों से और कल्पसूत्र की स्थविरावली से सिद्ध है। अतः सम्भावना यही है कि उत्तर भारत की इस अचेलधारा ने अपनी पहचान के लिये 'मूलगण' नाम चुना हो, क्योंकि इस धारा को बोटिक और यापनीय ये दोनों ही नाम दूसरों के द्वारा ही दिये गये हैं, जहाँ श्वेताम्बरों अर्थात् उत्तर भारत की सचेलधारा ने उन्हें बोटिक कहा, वहीं दिगम्बरों अर्थात् दक्षिण भारत की निर्ग्रन्थ अचेलधारा ने उन्हें यापनीय कहा। डॉ० गुलाबचन्द चौधरी ने जो यह कल्पना की, कि दक्षिण में निर्ग्रन्थसंघ की स्थापना भद्रबाहु द्वितीय ने की (जै. शि. सं/ मा. च. / भा. ३ / प्रस्ता./ पृ. २३) मुझे निराधार प्रतीत होती है, दक्षिण भारत का निर्ग्रन्थसंघ तो भद्रबाहु - प्रथम की परम्परा का प्रतिनिधि है, चाहे भद्रबाहु प्रथम दक्षिण गये हों, या नहीं गये हों, किन्तु उनकी परम्परा ईसा पू० तीसरी शती में दक्षिण भारत में पहुँच चुकी थी, इसके अनेक प्रमाण भी हैं। भद्रबाहु प्रथम के पश्चात् लगभग द्वितीय शती में एक आर्यभद्र हुए हैं, जो निर्युक्तियों के कर्ता थे और सम्भवतः ये उत्तर भारत के अचेल पक्ष के समर्थक रहे थे, उनके नाम से भद्रान्वय प्रचलित हुआ, जिसका उल्लेख उदयगिरि (विदिशा) में मिलता है। मेरी दृष्टि में मूलगण, भद्रान्वय, आर्यकुल आदि
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