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________________ ५५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०३ ___ मुनि कल्याणविजय जी एवं डॉ० सागरमल जी का मत किन्तु श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने दिगम्बरजैन-परम्परा को अर्वाचीन सिद्ध करने के लिए यह कथा गढ़ी है कि उसकी स्थापना आचार्य कुन्दकुन्द ने विक्रम की छठी शताब्दी में दक्षिण भारत में की थी। ३७० ई० के उपर्युक्त ताम्रपत्रलेख में मूलसंघ का उल्लेख मिलने से उनकी यह कथा मनगढन्त सिद्ध हो जाती है। इसलिए उन्होंने इसकी मनगढन्तता पर आवरण डालने के लिए एक दूसरी यह कथा गढ़ी है कि मूलसंघ दिगम्बरसंघ का नाम नहीं था, अपितु यापनीयसंघ का नाम था। द्वितीय अध्याय में मुनि कल्याणविजय जी का वह वक्तव्य उद्धृत किया गया है, जिसमें उन्होंने कल्पना की है कि बोटिक शिवभूति ने उत्तरभारत में अपने सम्प्रदाय का नाम 'मूलसंघ' रखा था, पर दक्षिण में जाने पर वह 'यापनीय' नाम से प्रसिद्ध हुआ। डॉ० सागरमल जी ने भी मुनि जी की इस कपोलकल्पना का अनुसरण किया है, किन्तु उन्होंने माना है कि शिवभूति ने उत्तरभारत में अपने सम्प्रदाय का नाम मूलगण रखा था, किन्तु दक्षिण में पहुँचने पर पहले वह मूलसंघ नाम से प्रसिद्ध हुआ, पश्चात् उसे यापनीय नाम मिला। मान्य विद्वान् ने यापनीयसंघ को मूलसंघ सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे इस प्रकार हैं "मूलसंघ प्रारम्भ में किस परम्परा से सम्बद्ध था और कब दूसरी परम्पराओं ने उससे अपना सम्बन्ध जोड़ना प्रारम्भ किया, इसे समझने के लिये हमें सर्वप्रथम मूलसंघ के इतिहास को जानना होगा। सर्वप्रथम हमें दक्षिण भारत में नोणमंगल की ताम्रपट्टिकाओं पर मूलसंधानुष्ठिताय एवं मूलसंघेनानुष्ठिताय ऐसे उल्लेख मिलते है। ये दोनों ताम्रपट्टिकायें क्रमशः लगभग ईस्वी सन् ३७० और ई० सन् ४२५ की मानी जाती हैं। किन्तु इनमें निर्ग्रन्थ, कूर्चक, यापनीय या श्वेतपट आदि के नामों का उल्लेख नहीं होने से प्रथम दृष्टि में यह कह पाना कठिन है कि इस मूलसंघ का सम्बन्ध उनमें से किस धारा से था। दक्षिण भारत के देवगिरि और हल्सी के अभिलेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ईसा की पाँचवी शती के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ, यापनीय, कूर्चक और श्वेतपटमहाश्रमणसंघ का अस्तित्व था। किन्तु मूलसंघ का उल्लेख तो हमें ईसा की चतुर्थ शती के उत्तरार्ध में मिल जाता है, अतः अभिलेखीय आधार पर मूलसंघ का अस्तित्व यापनीय, कूर्चक आदि नामों के पूर्व का है। मुझे ऐसा लगता है कि दक्षिण में इनमें से निर्ग्रन्थसंघ प्राचीन है और यापनीय, कूर्चक, श्वेतपट आदि संघ परवर्ती हैं, फिर भी मेरी दृष्टि में निर्ग्रन्थसंघ को मूलसंघ नहीं कहा जा सकता है। दक्षिण भारत का यह निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ भद्रबाहु (प्रथम) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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