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[सत्तर]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ४३ लाख, बीस हजार वर्षों का होता है। इस समय सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है। इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बरजैन-परम्परा लाखों वर्ष पुरानी है।
मुद्राराक्षस नामक नाटक (४००-५०० ई०) में दिगम्बर जैन साधु को क्षपणक और बीभत्सदर्शन (नग्न होने के कारण कुरूप) शब्दों से अभिहित किया गया है। वायुपुराण (५०० ई०) में दिगम्बरजैन मुनि नग्न एवं निर्ग्रन्थ शब्दों से, वराहमिहिरबृहत्संहिता (४९० ई०) में नग्न, दिग्वासस् और निर्ग्रन्थ नामों से तथा भागवतपुराण (६०० ई०) में वातरशन श्रमण एवं गगनपरिधान संज्ञाओं से वर्णित हैं। संस्कृत के सुप्रसिद्ध गद्यकवि बाणभट्ट (७ वीं शती ई०) ने कादम्बरी और हर्षचरित नामक गद्यग्रन्थों में क्षपणक, आर्हत, नग्नाटक और मयूरपिच्छधारी शब्दों से दिगम्बरजैन मुनियों का वर्णन किया है। कूर्मपुराण (७०० ई०) एवं ब्रह्माण्डपुराण में उनके लिए निर्ग्रन्थ
और नग्न शब्द प्रयुक्त हुए हैं। लिंगपुराण में भगवान् ऋषभदेव को नग्न निरूपित किया गया है। न्यायकुसुमाञ्जलि नामक न्यायग्रन्थ में उदयनाचार्य (९८४ ई०) ने निरावरण
और दिगम्बर शब्द प्रयुक्त कर, न्यायमञ्जरी नामक न्याय ग्रन्थ में जयन्तभट्ट (१००० ई०) ने दिगम्बर कहकर और कृष्णमिश्र ने प्रबोधचन्द्रोदय (१०६५ ई०) नामक नाटक में विमुक्तवसन, क्षपणक तथा दिगम्बर अभिधानों से दिगम्बरजैन साधुओं की चर्चा की है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिकयुग से लेकर ईसा की ११वीं शताब्दी तक के वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। अतः दिगम्बरजैन-परम्परा वैदिककाल (कम से कम १५०० ई० पू०) से पूर्ववर्ती है। महाभारत
और वैदिक पद्मपुराण के आख्यानों के अनुसार तो दिगम्बरजैन-परम्परा द्वापरयुग (आज से आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष पूर्व) तथा छठे मन्वन्तर (आज से लाखों वर्ष पूर्व) में विद्यमान थी।
श्वेताम्बराचार्य श्री विजयानन्द सूरीश्वर 'आत्माराम' जी (ई० सन् १९२० के लगभग) ने महाभारत में उल्लिखित नग्नक्षपणक को श्वेताम्बरपरम्परा का जिनकल्पिक साधु माना है। (तत्त्वनिर्णयप्रासाद / पृ.५१४)। किन्तु यह सर्वथा असमीचीन है। सम्पूर्ण दिगम्बरीय, श्वेताम्बरीय, वैदिक एवं संस्कृत साहित्य तथा शब्दकोषों में क्षपणक शब्द दिगम्बरजैन मुनि के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। (देखिये, अध्याय ४/ प्र.१ / शी. ५)।
श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने क्षपणक शब्द को यापनीयसाधु का वाचक बतलाया है। यह भी सर्वथा मिथ्या है। किसी भी सम्प्रदाय के साहित्य में या किसी भी संस्कृत या प्राकृत के शब्दकोश में 'क्षपणक' शब्द का अर्थ 'यापनीय साधु' नहीं बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त भारतीय साहित्य में 'क्षपणक' शब्द का प्रयोग यापनीयों
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