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________________ ग्रन्थसार [उनहत्तर] अथर्ववेद एवं ब्राह्मणग्रन्थों में यति एवं व्रात्य शब्द दिगम्बरजैन मुनियों का अस्तित्व द्योतित करते हैं। तैत्तिरीयारण्यक में भी वातरशन श्रमण नाम से दिगम्बरजैन मुनियों का अभिधान हुआ है। ८०० ईसापूर्व के महर्षि यास्क-विरचित निघण्टु में दिगम्बरजैन मुनियों को दिगम्बर एवं वातवसन (वायुरूपी-वस्त्रधारी) शब्द से अभिहित किया गया है। महाभारत (५०० ई० पू०-१०० ई० पू०) में उत्तंक ऋषि के कुण्डलों का अपहरण करने के लिए तक्षक नाग द्वारा नग्नक्षपणक (दिगम्बरजैन साधु) का रूप धारण किये जाने का वर्णन है। यह घटना हिन्दूकालगणना के अनुसार द्वापरयुग की अर्थात् आज से आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष पूर्व की है। इससे दिगम्बरजैन-परम्परा की अतिप्राचीनता प्रकट होती है। तथा ईसापूर्व-रचित महाभारत ग्रन्थ में नग्नक्षपणक का उल्लेख होने से भी दिगम्बरजैनमत का ईसापूर्ववर्ती होना सिद्ध है। नग्नक्षपणक या क्षपणक शब्द समस्त दिगम्बरजैन ग्रन्थों, श्वेताम्बरजैन ग्रन्थों, वैदिक ग्रन्थों एवं संस्कृत गद्य-पद्य-नाट्य साहित्य में दिगम्बर जैन मुनि के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। श्वेताम्बराचार्य श्री विजयानन्द सूरीश्वर 'आत्माराम' जी ने अपने तत्त्वनिर्णयप्रासाद ग्रन्थ में नग्नक्षपणक शब्द को श्वेताम्बर-जिनकल्पी साधु का वाचक और मुनि श्री कल्याणविजय जी ने क्षपणक (क्षमण > क्षपण > क्षपणक) शब्द को यापनीयसाधु का पर्यायवाची माना है, ये दोनों मान्यताएँ अप्रामाणिक हैं। (देखिये, अध्याय ४ / प्रकरण १ / शीर्षक २८ एवं ३० तथा अध्याय ४ / प्रकरण २ / शीर्षक १९)। चाणक्यशतक (४०० ई० पू०) में "नग्नक्षपणके देशे रजकः किं करिष्यति" इन शब्दों में दिगम्बरजैन मुनि का उल्लेख किया गया है। पञ्चतन्त्र (३०० ई०) के अपरीक्षितकारक की मणिभद्रश्रेष्ठिकथा में दिगम्बरजैन मुनियों का वर्णन है, जो उनके लिए प्रयुक्त नग्नक, क्षपणक और दिगम्बर शब्दों से तथा उनके द्वारा दिये गये धर्मवृद्धि के आशीर्वाद से सूचित होता है। भासकृत नाटक अविमारक में 'जदि वत्थं अवणेमि समणओ होमि' (यदि मैं वस्त्र उतार दूं, तो श्रमण बन जाऊँगा) इस वाक्य द्वारा दिगम्बरजैन मुनि की चर्चा की गयी है। मत्स्यपुराण (३०० ई०) में दिगम्बरजैन साधु के लिए निष्कच्छ, निर्ग्रन्थ और नग्न शब्दों का प्रयोग हुआ है। विष्णुपुराण ३००-४०० ई० की रचना है। उसमें देवासुर-संग्राम के पूर्व असुरों को दिगम्बरजैनधर्म में दीक्षित किये जाने का वर्णन है। वैदिक पद्मपुराण के अनुसार छठे मन्वन्तर में उत्पन्न राजा वेन ने दिगम्बरजैनधर्म स्वीकार किया था। एक मन्वन्तर Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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