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________________ [अड़सठ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अध्याय ४-जैनेतर साहित्य में दिगम्बर जैन मुनियों की चर्चा जैनेतर साहित्य अर्थात् वैदिक, बौद्ध एवं संस्कृत साहित्य में उपलब्ध प्रमाणों से भी दिगम्बरजैनमत की प्राचीनता सिद्ध होती है। वैदिक साहित्य से तात्पर्य वेदों के अनुयायी सम्प्रदाय के साहित्य से है। वर्तमान में इस सम्प्रदाय का नाम हिन्दूसम्प्रदाय है, जो इसका परम्परागत अथवा मौलिक नाम नहीं है। 'हिन्दू' शब्द सिन्धु नदी एवं उसके आस-पास के प्रदेश के लिए भारत में आनेवाले ईरानियों के मुख से निकला अस्वाभाविक शब्द है, क्योंकि वे 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। हिन्दूसम्प्रदाय का परम्परागत, मौलिक नाम वेदानुयायी होने के कारण वैदिकसम्प्रदाय है। वैदिक पुराणों और संस्कृतसाहित्य में जैनों, बौद्धों और चार्वाकों को वेदबाह्य और अवैदिक नामों से अभिहित किया गया है। इससे सिद्ध है कि वेदानुयायी सम्प्रदाय अपने को वैदिक शब्द से अभिहित करता था। इसके अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ में वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् आदि के अतिरिक्त वेदों को प्रमाण माननेवाले रामायण, महाभारत, पुराण आदि धार्मिक ग्रन्थ वैदिक साहित्य में परिगणित किये गये हैं तथा संस्कृत में लिखित गद्य, पद्य नाट्य आदि काव्यात्मक साहित्य संस्कृतसाहित्य के अन्तर्गत रखा गया है। वैदिकसाहित्य एवं संस्कृतसाहित्य में ऋग्वेद से लेकर ११वीं शताब्दी ई० तक के बीस से अधिक ग्रन्थों में दिगम्बरजैन मुनियों का उल्लेख किया गया है। एक पुराण में श्वेताम्बरमुनियों की भी चर्चा है। जिन ग्रन्थों में ये उल्लेख हैं, उनके रचनाकाल तथा जिन ऐतिहासिक या पौराणिक मानव-पात्रों के साथ दिगम्बरजैन मुनियों का वर्णन किया गया है, उनके स्थितिकाल से दिगम्बरजैनमत की प्राचीनता का निश्चय किया जा सकता है। दिगम्बरमत के ग्रन्थों में बतलाया गया है कि दिगम्बरजैन मुनि यथाजातरूपधर (जन्म के समय जैसा रूप होता है, वैसे सर्वांगनिर्वस्त्र नग्नरूप को धारण करनेवाले) होते हैं, उनके हाथ में मयूरपिच्छी होती है, तथा जब कोई उनकी वन्दना करता है, तब वे उसे धर्मवृद्धि हो यह आशीर्वाद देते हैं। इसी प्रकार श्वेताम्बरग्रन्थों में श्वेताम्बरमुनि को वस्त्र, पात्र, मुखवस्त्रिका, रजोहरण, कम्बल आदि अनेक उपकरणों का धारी तथा धर्मलाभ का आशीर्वाद देनेवाला वर्णित किया गया है। वैदिकसाहित्य एवं संस्कृतसाहित्य में दिगम्बर और श्वेताम्बर मुनि इसी रूप में चित्रित किये गये हैं। दोनों साहित्यों को मिश्रित कर कालक्रमानुसार उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं ऋग्वेद (१० / १३६ / २-३) में 'मुनयो वातरशनाः पिशंगा वसते मला' आदि शब्दों से दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा की गयी है। वातरशन का अर्थ है वायुरूपी कटिवस्त्रधारी अर्थात् नग्न। ऋग्वेद में शिश्नदेव शब्द से नग्न देवों (तीर्थंकरों) का कथन किया गया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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