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________________ ग्रन्थसार [सड़सठ] इस तरह श्वेताम्बरजैनसाहित्य में दिगम्बरजैनमान्यताओं के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में उल्लेख मिलते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि दिगम्बरजैनपरम्परा श्वेताम्बरसाहित्य (आचारांग, स्थानांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि) के रचनाकाल से पूर्ववर्ती है। ७. दशवैकालिकसूत्र एवं विशेषावश्यकभाष्य में वस्त्रपात्रकम्बल आदि उपधि को संयम का साधन माना गया है, अत एव उसे मूर्छा का अहेतु मानकर परिग्रह की परिभाषा से अलग कर दिया गया है। किन्तु वस्त्रपात्रादि संयम के साधन नहीं हैं, अपितु असंयम के हेतु हैं तथा ध्यान, निर्जरा एवं मोक्ष में बाधक हैं, यह निम्नलिखित कारणों से सिद्ध होता है क-वस्त्रादि का ग्रहण शीतादि-परीषहपीड़ा से बचने के लिए अर्थात् देहसुख की प्राप्ति के लिए किया जाता है। देहसुख की इच्छा राग है और राग असंयम है। वस्त्रादि के परिभोग से उनमें जीवों की उत्पत्ति होती है, जिनकी शरीर से रगड़ होने पर एवं वस्त्रों के धोने-सुखाने आदि से हिंसा होती है। इस तरह वस्त्रपरिभोग असंयम का हेतु है। ख-वस्त्रादिपरिग्रह चोरों से भय उत्पन्न करता है, सुरक्षा की चिन्ता पैदा करता है, याचना एवं धोने-सुखाने आदि की आकुलता उत्पन्न करता है। इन अपध्यानों का हेतु होने से वस्त्रादिपरिग्रह ध्यान-अध्ययन में बाधक है। __ग-वस्त्र धारण करने से शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषह नहीं हो पाते, जिससे परीषहजय का अवसर न मिल पाने से निर्जरा में बाधा उत्पन्न होती है। परीषहपीड़ानिवारक वस्तुओं का उपभोग मूर्छा का लक्षण है, क्योंकि वह शारीरिक दुःखनिवृत्ति एवं देह-सुखप्राप्ति की इच्छा से प्रेरित होता है। घ-वस्त्रादि परिग्रह संयम में बाधक होने से ही मोक्ष में बाधक है। इसीलिए तीर्थंकरों ने उसका त्याग किया था। तीर्थंकरों के लिए मोक्ष में बाधक होने से सिद्ध है कि सामान्य साधुओं के लिए भी वस्त्रादिपरिग्रह मोक्ष में बाधक है, इसलिए उनके द्वारा भी वह त्याज्य है। इस तरह वस्त्रादिपरिग्रह के मोक्ष में बाधक होने से सिद्ध है कि उत्तराध्ययन आदि में तीर्थंकरों द्वारा जिस अचेलकधर्म के उपदेश दिये जाने का उल्लेख है, वह अपने नामार्थ के अनुरूप अचेलक ही है, सचेल नहीं। और इसलिए अचेलक धर्म की परम्परा अर्थात् दिगम्बरजैन परम्परा, इस का उल्लेख करनेवाले आचारांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि श्वेताम्बर-साहित्य से पूर्ववर्ती है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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