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________________ [छियासठ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ___ इन गाथाओं में आचार्य शय्यम्भव ने परिग्रहविषयक एक मान्यता का खण्डन कर दूसरी मान्यता की स्थापना की है, इससे सिद्ध है कि उनके समय में वस्त्रपात्र-कम्बल आदि रखने को परिग्रह माननेवाली दिगम्बरीय विचारधारा प्रचलित थी। यह दिगम्बरजैनमत के पूर्ववर्तित्व का प्रमाण है। ख-विशेषावश्यकभाष्य आदि ग्रन्थों में अचेलकधर्म को जिनकल्प का नाम देकर यह घोषित किया गया है कि वह (अन्तिम अनुबद्ध केवली) जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद व्युच्छिन्न हो गया। यह इस बात का प्रमाण है कि अचेलकपरम्परा अर्थात् दिगम्बरपरम्परा जम्बूस्वामी के पूर्व विद्यमान थी। ग-उत्तराध्ययनसूत्र आदि ग्रन्थों में कहा गया है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों ने अचेलकधर्म का उपदेश दिया था और शेष बाईस तीर्थंकरों ने अचेल और सचेल दोनों धर्मों का। जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण आदि श्वेताम्बराचार्यों ने इन शब्दों की व्याख्या करते हुए कहा है कि सामान्य साधुओं के प्रसंग में अचेलक शब्द श्वेत-जीर्णवस्त्रधारी सचेल अर्थ का तथा सचेल शब्द बहुमूल्य-पंचवर्ण-वस्त्रधारी सचेल अर्थ का वाचक है। (अध्याय ३ / प्र.२ / शी. ३.२ तथा १४)। यह व्याख्या प्राकृत-संस्कृत भाषाओं तथा लोकभाषा के विरुद्ध है, अतः अप्रामाणिक है। इस कपोलकल्पित व्याख्या के द्वारा इन आचार्यों ने अचेलकधर्म अर्थात् दिगम्बरजैनपरम्परा के अस्तित्व को मिथ्या सिद्ध करने की कोशिश की है, किन्तु इसी कोशिश से सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरसाहित्य उक्त परम्परा से सुपरिचित है। यह उसके पूर्वभाव का सबूत है। घ-विशेषावश्यकभाष्य में अचेलत्व को संयमादि का घातक और वस्त्रधारण को संयमसाधक बतलाया गया है और इसलिए वस्त्रपात्रादि के मूर्छाहेतु होने का भी निषेध किया गया है। (अध्याय ३/प्र.२ / शी.६,७,१०)। इन दिगम्बर-मान्यताओं का खण्डन श्वेताम्बरसाहित्य के दिगम्बरमत से अभिज्ञ होने का प्रमाण है। ड.-विशेषावश्यकभाष्य में सामान्य मुनियों के लिए तीर्थंकरलिंग अर्थात् नग्नमुद्रा ग्रहण करने का निषेध किया गया है। (अध्याय ३ /प्र.२ / शी.९)। इससे सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरसाहित्य तीर्थंकरलिंग धारण करनेवाले दिगम्बरमुनियों की परम्परा से परिचित है। यह दिगम्बरपरम्परा के पूर्ववर्तित्व को सिद्ध करता है। च-दिगम्बरमतानुसार नाग्न्यलिंग धारणकर कामविकार को जीतना नाग्न्यपरीषहजय या अचेलपरीषहजय है। विशेषावश्यकभाष्य में इसका खण्डन कर अनेषणीय वस्त्र धारण न कर एषणीय वस्त्र धारण करने को अचेलपरीषहजय कहा गया है। (अध्याय ३/प्र.२ / शी. १३)। इस प्रकार अचेलपरीषहजय की दिगम्बरमान्य परिभाषा का खण्डन सिद्ध करता है कि श्वेताम्बरसाहित्य दिगम्बरमत से सुपरिचित है, अतः उसकी परम्परा बहुत पुरानी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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