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ग्रन्थसार
[पैंसठ] का भय), तथा परीषहप्रत्यय (शीतादि की पीड़ा सहने में असमर्थता)-"तिहिं ठाणेहिं वत्थं धारेज्जा। तं जहा हिरिवत्तियं, दुगुंछावत्तियं, परीषहवत्तियं।" (स्था.सू./३/३/ ३४७/१५०)। यदि उक्त तीन परिस्थितियाँ न हों तो साधु को नग्न ही रहना चाहिए। आचारांग में भी ऐसा ही कहा गया है। (देखिये, अध्याय ३/प्र.१ / शी.६)। इस प्रकार श्वेताम्बर-आगमों में भी दिगम्बरत्व का ही मुख्यतः विधान किया गया है। वस्त्रधारण की अनुमति तो कारणाश्रित होने से आपवादिक है।
वस्तुतः दिगम्बरत्व या अचेलत्व की अवधारणा के बिना जैनमत की अवधारणा साकार नहीं होती। दिगम्बरत्व ही जैनमत का प्राण है। श्वेताम्बरदृष्टि में भी जैन नाम के साथ दिगम्बरत्व की अवधारणा रची-पची है, इसीलिए सम्पूर्ण श्वेताम्बर-साहित्य में किसी न किसी रूप में अचेलत्व को स्वीकार किया गया है, अचेलत्व की चर्चा की गयी है, अचेलत्व की नयी-नयी व्याख्याएँ कर सचेलों पर अचेलत्व घटाया गया है, अचेलत्व को जिनकल्प नाम देकर उसे व्युच्छिन्न घोषित किया गया है। तात्पर्य यह कि श्वेताम्बपरम्परा अचेलत्व को आचरण से बहिष्कृत करके भी उसकी अवधारणा से पीछा नहीं छुड़ा पायी। यह इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि श्वेताम्बरपरम्परा दिगम्बरपरम्परा से उद्भूत हुई है, इसीलिए उसके सहित्य में दिगम्बरदृष्टि का रंग बिखरा हुआ दिखायी देता है।
६. जहाँ श्वेताम्बरीय आचारांग और स्थानांगसूत्र में अचेलत्व की श्रेष्ठता का प्रतिपादन कर तथा उत्तराध्ययन आदि में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों को अचेलकधर्म का उपदेशक बतलाकर दिगम्बरजैनमत की पूर्ववर्तिता सूचित की गयी है, वहीं दशवकालिकसूत्र आदि कतिपय ग्रन्थों में दिगम्बरमान्य सिद्धान्तों का खण्डन कर दिगम्बरमत का पूर्ववर्तित्व दर्शाया गया है। यथा_क-श्वेताम्बरमान्यतानुसार वीरनिर्वाण के लगभग ७५ वर्ष बाद (४५२ ई० पू०) हुए आचार्य शय्यम्भव ने अपने दशवकालिकसूत्र में लिखा है
जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति अ॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो णायपुत्तेण ताइणा।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इअ वुत्तं महेसिणा॥ ६/२०॥ अनुवाद-'साधु जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौञ्छन (रजोहरण) धारण करता है और उपभोग करता है, उसका प्रयोजन संयम और लज्जा का पालन है। संयम-लज्जा-पालक वस्त्रपात्रादि के रखने को भगवान् महावीर ने परिग्रह नहीं कहा है, अपितु उनमें मूर्छा करने को परिग्रह कहा है।
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