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था।
[चौंसठ]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ था। (देखिये, अध्याय २/प्र.६ तथा अध्याय ४)। इतने बड़े सत्य का अपलाप मुश्किल
इसीलिए श्वेताम्बराचार्यों को अपने साहित्य में इस सत्य का उल्लेख करना पड़ा, यद्यपि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों एवं टीकाकारों ने अचेलकधर्म को सचेलधर्म सिद्ध करने का अस्वाभाविक प्रयास किया है। श्वेताम्बरसाहित्य में तीर्थंकरों को अचेलक-धर्म का उपदेशक प्ररूपित किया जाना इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि अचेलकधर्म अर्थात् दिगम्बरधर्म की परम्परा श्वेताम्बर-साहित्य के रचनाकाल से पर्ववर्ती है।
३. आचारांग और स्थानांग में अचेलत्व को सचेलत्व से श्रेष्ठ बतलाया गया है। स्थानांग में कहा गया है- क-अचेलक की प्रतिलेखना अल्प होती है, ख-अचेलक का लाघव प्रशस्त होता है, ग-अचेलकवेश विश्वास के योग्य होता है, घ–अचेलक का तप अनुज्ञात (जिन-अनुमत) होता है, ङ-अचेलक के विपुल इन्द्रियनिग्रह होता है। (देखिये, अध्याय ३ /प्र.१ / शी.७)। आचारांग का कथन है कि अचेल भिक्षु को अनेक प्रकार के परीषह होते हैं, इन्हें भलीभाँति सहन कर वह कर्मों के भार से मुक्त हो जाता है। (देखिये, अध्याय ३ / प्र.१ / शी.६)। टीकाकार शीलांकाचार्य ने आचारांगोक्त अचेल शब्द का अल्पचेल अर्थ किया है, किन्तु आचारांग में अल्पचेल को 'अचेल' नहीं कहा गया है, अपितु सर्वथा चेलरहित को ही 'अचेल' शब्द से अभिहित किया गया है। (देखिये, अध्याय ३/प्र.१/शी.६)। सचेलमुक्ति माननेवाले श्वेताम्बरमत के ग्रन्थों में अचेलत्व को श्रेष्ठ प्रतिपादित किया जाना श्वेताम्बराचार्यों के प्राचीन दिगम्बरीय संस्कारों की अभिव्यक्ति का सूचक है।
४. आचारांग में द्रव्यपरिग्रह को भी परिग्रह बतलाते हुए कहा गया है-"लोक में जितने भी परिग्रहवाले मुनि हैं, उनका परिग्रह थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, चेतन हो या अचेतन, वे सब इन परिग्रहवाले गृहस्थों में ही अन्तर्भूत होते हैं। यह परिग्रह इनके लिए महाभय का कारण है। संसार की दशा जानकर इसे छोड़ो। जिसके पास यह परिग्रह नहीं होता, उसे महाभय नहीं होता।" (देखिये, अध्याय ३ / प्र.१ /शी.८)। परिग्रह की यह परिभाषा दशवैकालिकसूत्र (६/१९-२०) में वर्णित उस परिभाषा के विपरीत है, जिसमें वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि बाह्य द्रव्यों को परिग्रह न कहकर केवल मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। बाह्य द्रव्यों के परिग्रह को भी परिग्रह माननेवाली आचारांग-गत यह परिभाषा सर्वथा दिगम्बरमतानुरूप है। यह श्वेताम्बर बन्धुओं के अन्त:करण पर पड़े हुए प्राचीन दिगम्बरीय संस्कारों के प्रकट होने का प्रमाण है, जिससे सूचित होता है कि दिगम्बरमत श्वेताम्बरमत से पूर्ववर्ती है।
५. स्थानांग में उपदेश है कि केवल तीन परिस्थितियों में वस्त्र धारण करना चाहिए। वे तीन परिस्थितियाँ हैं : ह्रीप्रत्यय (लज्जा का अनुभव), जुगुप्साप्रत्यय (लोकनिन्दा
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