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ग्रन्थसार
[तिरसठ] अध्याय ३-श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा
श्वेताम्बरसाहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनसे दिगम्बरजैनमत की प्राचीनता और श्वेताम्बरमत से पूर्ववर्तिता सिद्ध होती है। उदाहरणार्थ
१. विशेषावश्यकभाष्य, बृहत्कल्पसूत्र के लघुभाष्य आदि श्वेताम्बरग्रन्थों में तीर्थंकरों को सर्वथा अचेल वर्णित किया गया है। (अध्याय ३/प्र.१/शी.४)। यद्यपि आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य आदि के अनुसार सभी तीर्थंकर एक वस्त्र लेकर प्रव्रजित होते हैं, तथापि वह वस्त्र कुछ समय बाद च्युत हो जाता है और तीर्थंकर अन्ततः अचेल अवस्था में ही मुक्त होते हैं। सचेलमुक्ति की मान्यता श्वेताम्बरमत का विशिष्ट सिद्धान्त है। उसके अनुसार तीर्थंकर भी सचेल होने पर मुक्त हो सकते हैं। जब सामान्य स्त्रीपुरुष सचेल होते हुए मुक्त हो सकते हैं, तब तीर्थंकर जैसी सातिशय आत्मा सचेल होते हुए मुक्त न हो, यह तो सोचा भी नहीं जा सकता। अतः श्वेताम्बरमत में तीर्थंकरों को अचेल मानना आवश्यक नहीं था। फिर भी माना गया है। यह इस बात का प्रमाण है कि श्वेताम्बरसंघ पहले उसी निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ का अभिन्न अंग था जिसमें तीर्थंकर सर्वथा अचेलमुद्राधारी माने गये हैं। तीर्थंकरों की यह नग्न-मुद्रा लोकप्रसिद्ध थी, वैदिकपरम्परा और बौद्धपरम्परा में भी प्रसिद्ध थी। अतः श्वेताम्बर इसे अमान्य नहीं कर सकते थे। इस कारण उन्हें तीर्थंकरों को सर्वथा अचेल ही स्वीकार करना पड़ा, यद्यपि प्रव्रजित होते समय उन्हें कुछ समय के लिए देवदूष्यधारी मान ही लिया। अतः श्वेताम्बरसाहित्य में तीर्थंकरों के अचेलत्व की स्वीकृति श्वेताम्बरपरम्परा पर दिगम्बरपरम्परा के प्रभाव को स्पष्टतः परिलक्षित करती है। यह दिगम्बरपरम्परा के पूर्वभाव का स्पष्ट प्रमाण है।
२. उत्तराध्ययनसूत्र आदि श्वेताम्बरग्रन्थों में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों को केवल अचेलकधर्म का उपदेशक तथा शेष २२ तीर्थंकरों को अचेल और सचेल दोनों धर्मों का उपदेशक बतलाया गया है। (देखिये, अध्याय ३/प्र.१ / शी.५)। दशवैकालिकसूत्र (६/१९-२०) के अनुसार श्वेताम्बरमत साधु के वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि धारण करने को परिग्रह नहीं मानता, अपितु संयम और लज्जा की रक्षा का साधन मानता है। (देखिये, अध्याय ३/ प्र.१/ शी.८)। इस प्रकार जब उसे सचेलमुक्ति मान्य है, तब तीर्थंकरों को अचेलकधर्म का उपदेशक बतलाना आवश्यक नहीं था। सभी तीर्थंकरों को मात्र सचेलधर्म का ही उपदेष्टा प्ररूपित करना युक्तिसंगत था। किन्तु अचेलकधर्म का उपदेशक बतलाया गया है। इसका कारण भी यही है कि भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकर अचेलकधर्म के ही उपदेष्टा के रूप में लोकप्रसिद्ध थे। उनके अनुयायी मुनि भी निर्ग्रन्थ नाम से जाने जाते थे और निर्ग्रन्थ शब्द जैनसम्प्रदाय के अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध सम्प्रदायों में भी नग्न जैनमुनियों के लिए ही प्रसिद्ध
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