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ग्रन्थसार
[इकहत्तर] की उत्पत्ति के बहुत पहले से मिलता है। 'महाभारत' की रचना ई० पू० ४०० से ई० पू० १०० के बीच हुई थी। इसमें नग्नक्षपणक का उल्लेख है, जब कि यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुई थी। (देखिये, अध्याय ७ / प्र.१/ शी. १०)। आजिविकसाधु की भी क्षपणक संज्ञा संभव नहीं है। (देखिये, अध्याय ४/ प्र.१ / शी.३३)।
बौद्ध पिटकसाहित्य में ईसापूर्व छठी शती के बुद्धवचनों का संकलन है, जो ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में लिपिबद्ध हो चुका था। उसके अन्तर्गत सुत्तपिटक के अंगुत्तरनिकाय नामक ग्रन्थ में निर्ग्रन्थों (दिगम्बरजैन मुनियों) को अहिरिका (अह्रीक-निर्लज्ज) कहा गया है, जिससे उनका नग्न रहना सूचित होता है। अंगुत्तरनिकाय में ही उन्हें अचेल शब्द से भी अभिहित किया गया है। प्रथम शती ई० के बौद्धग्रन्थ दिव्यावदान में निर्ग्रन्थों को नग्न विचरण करनेवाला वर्णित किया गया है। धम्मपद-अट्ठकथा (४-५वीं शती ई०) की विसाखावत्थु-कथा में भी निर्ग्रन्थों को नग्नवेशधारी ही बतलाया गया है तथा आर्यशूर (चौथी शती ई०) ने संस्कृत में रचित जातकमाला में निग्रन्थों को वस्त्रधारण करने के कष्ट से मुक्त कहा है।
किन्तु , मुनि श्री कल्याणविजय जी ने इन बौद्धग्रन्थों में उपलब्ध नग्न निर्ग्रन्थों के उल्लेखों को यापनीय साधुओं का उल्लेख माना है, जो अत्यन्त अप्रामाणिक है। निर्ग्रन्थ और यापनीय भिन्न सम्प्रदायों के नाम हैं, यह पाँचवी शती ई० के कदम्बवंशी राजा मृगेशवर्मा के हल्सी ताम्रपत्रलेख (क्र. ९९) से स्पष्ट है। (देखिये, अध्याय ४/ प्र. २ / शी.१९)। तथा यापनीयसम्प्रदाय का उदय ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ था, जब कि दिव्यावदान ईसा की प्रथम शताब्दी का ग्रन्थ है। तथा उन्होंने (मुनि श्री कल्याणविजय जी ने) श्वेताम्बरसम्प्रदाय की प्राचीनता प्रमाणित करने के लिए बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में वर्णित 'निगण्ठा एकसाटका' इत्यादि वाक्य में आये एकसाटक (एकशाटक) शब्द को निर्ग्रन्थ का विशेषण मानकर एकवस्त्रधारी श्वेताम्बरसाधु का बोधक मान लिया है, जो उनकी महान् भ्रान्ति है। और दिगम्बर जैन विद्वान् कामताप्रसाद जी जैन ने यह समझ लिया है कि वह निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के क्षुल्लक नामक उत्कृष्ट श्रावक का वाचक है। यह भी भ्रान्तिपूर्ण धारणा है। 'एकसाटक' शब्द 'निर्ग्रन्थ' का विशेषण नहीं है, अपितु निर्ग्रन्थों से भिन्न एकसाटक (एक वस्त्रधारी) नाम से प्रसिद्ध सम्प्रदाय-विशेष के साधुओं का बोधक स्वतंत्र शब्द है। यह सुत्तपिटक-खुद्दकनिकाय के उदानपालि नामक प्राचीन ग्रन्थ से सिद्ध है। (देखिये, अध्याय ४/ प्र.२ / शी.८)।
इसी प्रकार मज्झिमनिकायपालि (१. मूलपण्णासक) के महासच्चकसुत्त में निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक ('सच्चको निगण्ठपुत्तो'), अचेलक और पाणितलभोजी आजीविक
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