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५५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०२ ६.७. 'अनेकान्त' में प्रकाशनार्थ प्रेषित श्री जायसवाल जी का नोट
चक्रवर्ती खारवेल और हिमवन्त-थेरावली१३२
लेखक : श्री० काशीप्रसाद जी जायसवाल "मुनि श्री कल्याणविजय जी ने सत्यगवेषणाबुद्धि से गुजराती हिमवन्त-थेरावली से खारवेल का इतिहास दिया। इसमें साम्प्रदायिक आक्षेप की कोई जगह नहीं है, जैसा कि 'अनेकान्त' के सम्पादक जी ने विवेचना कर दी है।
"मेरे मन में हिमवन्त-थेरावली के विषय में बहुत सन्देह पैदा हुआ। श्री० कल्याणविजय जी के देखने में यह मूल पुस्तक अभी नहीं आई है। पर जिस भाण्डार में यह पोथी है, वहाँ से मेरे श्रद्धेय मित्र मुनि जिनविजय जी के पास आ गई है। उन्होंने पोथी में खारवेल विषयक अंश प्रक्षिप्त पाया। इस समय मुनि जी पटने में ही हैं। अतः खारवेल का इतिहास थेरावली में प्रामाणिक नहीं, प्रक्षिप्त, आधुनिक और कल्पित है।
"मुनि श्री पुण्यविजय जी के लेख (अनेकान्त पृ० १४२) से 'यापज्ञापक' शब्द का अर्थ साफ हो गया, जिसकी खोज मुझे बहुत दिनों से थी। कई वर्षों के अध्ययन से यापजावक पाठ निश्चित किया गया था। पर अर्थ का पता नहीं लगता था। मैं मुनिजी का बहुत अनुगृहीत हूँ।
चैत्र शु. ११, वी० २४५६११३३
इस प्रकार महाराज खारवेल को श्वेताम्बर सिद्ध करने का यह प्रयास भी विफल हो गया। खारवेल के दिगम्बर होने का स्पष्ट प्रमाण यह है कि खण्डगिरि-उदयगिरि, जहाँ राजा खारवेल ने हाथीगुम्फा आदि गुफाएँ बनवाई थीं, परम्परा से दिगम्बरजैन तीर्थ रहा है और उन गुफाओं में जितनी भी जिनप्रतिमाएँ उत्कीर्ण हुई हैं, सब नग्न हैं। १३२. 'अनेकान्त' । वर्ष १ / किरण ६-७ / वैशाख-ज्येष्ठ, वीर नि० सं० २४५६ / पृष्ठ ३५२ । १३३. "वीरनिर्वाण संवत् के इस उल्लेख पर से, और भी लेखक महोदय के हाल के
पत्रों में इसी संवत् को लिखा देख कर, ऐसा मालूम होता है कि 'अनेकान्त' की १ ली किरण में 'महावीर का समय' शीर्षक के नीचे जो इस संवत् की यथार्थता को सिद्ध किया गया है, उसे अब जायसवाल जी ने भी स्वीकार कर लिया है
और इसी से आप अपने पत्रादिकों में उसका व्यवहार करने लगे हैं। अच्छा हो यदि जायसवाल जी इस विषय में अपना कोई स्पष्ट नोट देने की कृपा करें।" सम्पादक।
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