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________________ अ० ७ / प्र०२ यापनीयसंघ का इतिहास / ५५३ की थेरावली अप-टु-डेट नहीं बन सकी। खैर । ऐसी रीति हमारे यहाँ बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है, इससे इसमें हमें कोई आश्चर्य पाने की बात नहीं। 44 'आप जान कर प्रसन्न होंगे कि खारवेल के लेख का पुनर्वाचन हम दोनों - मैं और विद्यावारिधि जायसवाल जी - साथ मिल कर, हाल में फिर यहाँ पर बहुत परिश्रम के साथ कर रहे हैं । यहाँ पर पटने के म्यूजियम में इस लेख के सब साधन उपस्थित हैं। सरकार के आर्किओलाजिकल डिपार्टमेंट की तरफ से आज तक जो-जो प्रयत्न इस लेख के संशोधन और संरक्षण की दृष्टि से किये गये, उन सब का फलस्वरूप साहित्य यहाँ पर सुरक्षित है। श्रीमान् जायसवाल जी की अपने हाथ से ली हुई लेख की असली छापें, और पुराविदों की ली हुई प्रतिकृतियाँ और विलायती मिट्टी पर लिया हुआ अमूल्य कास्ट इत्यादि सब साधनों को सामने रखकर पाठ की वाचना की जा रही है। रोज ४-५ घंटे मैं, जायसवाल जी और कमैर म्यूजियम के क्युरेटर रायसाहिब घोष खड़े पैरों खारवेल की इस महालिपि के एक-एक अक्षर को बहुत तत्त्वावधान के साथ पढ़ रहे हैं। एक-एक पंक्ति को पढ़ने में कोई २-३ घंटे लगते हैं और किसी-किसी अक्षर पर पूरा सामायिक भी कर लिया जाता है । मेरा इरादा है कि यहाँ पर लेख की जो सामग्री प्रस्तुत है, उसे पूरा कर फिर खंडगिरि पर जा कर निश्चित किये हुए पाठ को प्रत्यक्ष शिलाक्षरों से भी मिलान कर लिया जाय। इसके लिये खास तौर पर गवर्नमेंट को लिखा जायगा और फिर गवर्नमेंट के प्रबंध से वहाँ पर जाया जायगा । शिला पर पढ़ने के लिये बड़ी कठिनाई है और बहुत बेढब जगह पर यह लेख खुदा हुआ कहते हैं । श्रीयुत जायसवाल जी कोई १२ वर्ष से इस लेख पर परिश्रम कर रहे हैं और उसी परिश्रम का यह फल है कि आज हम इस लेख के रहस्य और महत्त्व को इस तरह वास्तविक रूप में समझने के लिये उत्सुक हो रहे हैं। " इसके साथ में श्री जायसवाल जी का नोट है। वह ' अनेकान्त' में छपने के लिये भेजा जा रहा है। आप चाहें तो मेरी यह चिट्ठी भी छाप सकते हैं । ' अनेकान्त' सुन्दर और सात्त्विक रूप में प्रकाशित हो रहा है, जो इसके नाम को सर्वथा सार्थक बना रहा है । लौटते हुए यदि मौका मिला तो मिलने की पूरी इच्छा तो है ही । Jain Education International For Personal & Private Use Only भवदीय जिनविजय " www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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