SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 748
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ७ / प्र० २ " संवत् १८९३ वर्षे मार्गसीर शुक्ल नवमी तिथौ नागोरनगरे लेखक साचीहरविप्ररामचन्द्रेण लिखिता । चिरं नंदतु । " “हिमवन्त-थेरावली के सम्बम्ध में हम यहाँ अधिक नहीं लिखेंगे। इसकी विस्तृत आलोचना एक स्वतंत्र निबन्ध में हो सकती है, जो अधिक समय और विचारणा की अपेक्षा रखता है। यदि अनुकूलता प्राप्त हुई, तो इसके लिये भी अवश्य ही उद्योग किया जायगा ।" ( लेख समाप्त ) । ६.६. 'अनेकान्त' के सम्पादक को लिखित पटना, ता० १२/४ / ३० 'श्रीमान् बाबू जुगलकिशोर जी की सेवा में सादर जयजिनेन्द्र पूर्वक विदित हो कि मैं कुछ दिनों से इधर आया हुआ हूँ। अहमदाबाद से आते हुए रास्ते में एक दो रोज दिल्ली ठहर कर आपके साथ सत्समागम का लाभ उठाने की खास इच्छा थी, परन्तु संयोगवश वैसा न हो सका । 44 मुनि जिनविजय जी का पत्र १३१ और हिमवंत - थेरावली के जाली होने की सूचना “यहाँ पर मित्रवर श्रीयुत काशीप्रसाद जी जायसवाल से समागम हुआ और उन्होंने 'अनेकान्त' में आये हुए खारवेल के लेखों के विषय में चर्चा की, जिसमें खास तौर पर उस लेख के बारे में विशेष चर्चा हुई, जिसमें हिमवन्त - थेरावली के आधार पर कुछ बातें लिखी गई हैं। यह थेरावली अहमदाबाद में पण्डितप्रवर श्री सुखलाल जी के प्रबन्ध से हमारे पास आ गई थी और उसका हमने खूब सूक्ष्मता के साथ वाचन किया। पढ़ने के साथ ही हमें वह सारा ही ग्रन्थ बनावटी मालूम हो गया और किसने और कब यह गढ़ डाला उसका भी कुछ हाल मालूम हो गया। इन बातों के विशेष उल्लेख की मैं अभी आवश्यकता नहीं समझता। सिर्फ इतना ही कह देना उचित होगा कि हिमवन्त - थेरावली के कल्पक ने खारवेल के लेखवाली जो किताब हमारी (प्राचीन जैनलेखसंग्रह, प्रथम भाग ) छपाई हुई है और जिसमें पं० भगवानलाल इन्द्र जी के पढ़े हुए लेख का पाठ और विवरण दिया गया है, उसी किताब को पढ़ कर उस पर से यह थेरावली का वर्णन बना लिया है। उस कल्पक को श्री जायसवाल जी के पाठ की कोई कल्पना नहीं हुई थी, इसलिये उस कल्पक १३१. ‘अनेकान्त’/ वर्ष १ / किरण ६-७ / वैशाख - ज्येष्ठ, वीर नि.सं. २४५६ / पृष्ठ ३५१-३५२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy