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________________ अ०७/प्र०२ यापनीयसंघ का इतिहास / ५४९ "अञ्चलगछ की पट्टावली के इस उल्लेख से न केवल खारवेल और इन दो स्थविरों की समकालकता ही सिद्ध है, बल्कि इससे हिमवंत-थेरावली की भी कतिपय बातों का समर्थन होता है। "९. इस फिकरे में लेखक का कहना है कि "एक तो देवाचार्य, बुद्धिलिंगाचार्य, धर्मसेनाचार्य तथा नक्षत्राचार्य श्वेताम्बर नहीं थे, दूसरे ये नितान्त एक-दूसरे से भिन्नकालीन होने से खारवेल की सभा में इनका एकत्र होना असंभव है।" यह ठीक है कि इन आचार्यों का श्वेताम्बरजैनों की विद्यमान पट्टावलियों में वर्णन नहीं है, परन्तु हिमवंतथेरावलीकार ने भी यह तो लिखा ही नहीं है कि ये स्थविर श्वेताम्बर-संप्रदायानुयायी थे। थेरावलीकार ने तो स्पष्ट लिख दिया है कि ये आचार्य जिनकल्प की तुलना करने वाले थे, आर्य महागिरि की शाखा के स्थविर थे, जो स्वयं भी जिनकल्प की तुलना करते थे। यदि ये नाम दिगम्बर-पट्टावलियों में मिलते हैं, तो इसमें आपत्ति की बात ही क्या है? इस से तो उलटा थेरावली के लेख का ही समर्थन होता है। अब रही इनके नितान्त भिन्नकालीन होने की बात, सो यह भी आपत्ति वास्तविक नहीं जान पड़ती, दिगम्बरीय ग्रन्थों के अनुसार देवाचार्य निर्वाण से ३१५ वर्ष पीछे दशपूर्वधर बने थे, तो इस समय के पहले भी वे विद्यमान थे, इसमें तो शंका ही क्या है? बुद्धिलिंग का दशपूर्वधरत्व-काल निर्वाण से २९५ से ३१५ वर्ष तक लिखा है, धर्म-सेनाचार्य का समय नि० सं० ३२९ लेखक स्वयं कबूल करते है, नक्षत्राचार्य ३४५ में एकादशांगधारी हुए माने जाते हैं। तो इसके पहले इनकी विद्यमानता स्वयं सिद्ध है। इस दशा में खारवेल द्वारा एकत्र की गई सभा में इन आचा चार्यों का सम्मिलित होना कुछ भी असंभावित अथवा अशक्य नहीं है। इस विषय में विद्वान् सम्पादक जी ने भी फुटनोट में अच्छा खुलासा कर दिया है, जो विद्वानों के पढ़ने योग्य है। इसी फिकरे में लेखक महाशय लिखते हैं कि "इन आचार्यों को थेरावली भी दिगम्बर (जिनकल्पी) प्रकट करती है। रही बात सवस्त्र साधुओं की, सो थेरावली में ये सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति व श्यामाचार्य प्रभृति बताए हैं। इनमें से पहले दो इस सभा में शामिल नहीं हो सकते, यह हम देख चुके। रहे शेष दो, सो ये भी उक्त सभा में नहीं पहुँच सकते, क्योंकि उमास्वाति इस घटना के कई शताब्दी बाद हुए हैं और श्यामाचार्य उनसे भी पीछे के आचार्य मालूम होते हैं। अतः थेरावली का यह वक्तव्य प्रामाणिक नहीं है।" "थेरावली इन देवाचार्य प्रभृति को जिनकल्पी प्रकट करती है, यही तो इसकी प्राचीनता का द्योतक है। यदि वह अर्वाचीन काल की रचना होती, तो दूसरी श्वेताम्बरीय पट्टावलियों की तरह इसमें भी देवाचार्य, बोधिलिंग, धर्मसेन प्रमुख आचार्यों का उल्लेख नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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