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________________ ५४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अं०७/प्र०२ "वीर निर्वाण से ३३० वर्षों के बाद ये सब कार्य करके खारवेल को स्वर्गवासी हुआ लिखा है। किन्तु श्वेताम्बरीय तपागच्छ की 'वृद्धपट्टावली' से यह बात बाधित है। उसके अनुसार उक्त स्थविरद्वय का समय वीर निर्वाण से ३७२ वर्ष का है। इस हालत में खारवेल का उनसे साक्षात् होना कठिन है।" "खारवेल वीरसंवत् ३३० में स्वर्गवासी हुआ, यह बात तो ठीक है, पर 'सुस्थितसुप्रतिबुद्ध निर्वाण से ३७२ वर्ष के बाद हुए' यह लिखना गलत है। सभी श्वेताम्बरगच्छीय पट्टावलियों में आर्य सुहस्ति का स्वर्गवास निर्वाण से २९१ वर्ष के बाद होना लिखा है, इस दशा में आर्य सुहस्ति के पट्टधर सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध की विद्यमानता ३३० के पहिले मानने में कुछ भी विरोध नहीं है। इन स्थविरों का ३७२ के बाद होने का लेख भ्रमपूर्ण है। अगर ऐसा तपागच्छ की पट्टावली में उल्लेख है, तो वह अशुद्ध है, इसमें कोई शक नहीं है। मालूम होता है ३२७ के स्थान में भूल से ३७२ छप गया है, क्योंकि इन दोनों स्थविरों का स्वर्गवास निर्वाण से ३२७ वर्ष के बाद हुआ था और इन के नाम के लेखोंवाले वहाँ पर दो स्तूप भी भिक्षुराज खारवेल ने बनवाये थे, ऐसा अञ्चलगच्छ की मेरुतुंगकृत पट्टावली में उल्लेख है। साथ ही, वहाँ यह भी लिखा है कि 'आर्य सुस्थित-सुप्रतिबद्ध अधिकतर कलिंग देश में ही विहार करते थे। परमाईत भिक्षुराज इनका परमभक्त बना हुआ था, और इन स्थविरयुगल के उपदेश से उसने अनेक शासनोन्नति करनेवाले धर्मकार्य किये थे। कलिंगदेश में 'शजयावतार' नाम से प्रसिद्ध कुमरपर्वत पर इन्होंने कोटिवार सरिमंत्र का आराधन किया था, अतएव इनका मुनिगण 'कोटिकशाखा' इस नाम से प्रसिद्ध हो गया था। इन दोनों ने अपना साधुसमुदाय इंद्रदिन्नसूरि को समर्पण करके कुमरगिरि पर अनशन कर वीर निर्वाण से ३२७ वर्ष बीतने पर स्वर्गवास प्राप्त किया।१२८ १२८. "जिसका सारांश ऊपर दिया गया है वह अञ्चलगच्छ की पट्टावली का मूल पाठ इस प्रकार है-"चम्पापुरीवास्तव्यौ सुस्थित-सुप्रतिबुद्धाभिधानौ द्वावपि राजन्यकुलसमुद्भवौ भ्रातरौ प्राप्तसंवेगौ श्रीमदार्यसुहस्तिनां समीपे व्रतं जगृहतुः। प्रायेण कलिङ्गदेशे विहारं कुर्वतोस्तयोस्तत्रत्यः परमार्हतभिक्षुराजभूपोऽतीव भक्तः सञ्जातः। तयोरुपदेशेन तेन भिक्षुराजभूपेनानेके (कानि) धर्मकार्याणि शासनोन्नतये कारितानि। ताभ्यां च तत्र कलिङ्गदेशे शत्रुञ्जयावतारापरनामप्रसिद्धकुमरपर्वतोपरिध्यानस्थाभ्यां कोटिवारं सूरिमन्त्राराधनं कृतम्। अतस्तदीयपरिवारमुनिगणः 'कोटिकशाखा'- भिधानतः प्रसिद्धो बभूव। तौ द्वावपि भ्रातरौ निजपरिवारं श्रीमदिन्द्रदिन्नसूरिभ्यः समर्प्य कुमरगिरावनशनं विधाय श्रीवीरप्रभुनिर्वाणत् ३२७ वर्षेषु व्यतिक्रान्तेषु स्वर्ग जग्मतुः। भिक्षुराजभूपेन च तत्रोत्सवं निर्माय तदभिधानलेखयुतौ द्वौ स्तूपौ कारितौ।" मेरुतुङ्गीयाञ्चलगच्छीय-पट्टावली। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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